हम सब के प्यारे बुद्धन भाई !
आकाशवाणी पटना माने चौपाल होता था और चौपाल माने बुद्धन भाई !
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मैं भी अक्सर चौपाल में गंगेसर भाई बनता था। बनता क्या,बनना पड़ता था। महोदय जीवछ भाई (अर्थात् कुमार साहेब,अर्थात् श्रीसाकेतानन्द ) के मनमौजीपन और कभी- कभी उसकी लंबी छुट्टी में रहने के कारण उसकी अनुपस्थित मे। चौपाल मे मुझे गंगेसर भाई का अवतार लेना पड़ता था और बुद्धन भाई की भोजपुरी और रूपा बहिन की मगही के साथ मैथिली में कंपीअरिंग करनी पड़ती थी।रूपा बहन- अर्थात् सुश्री शीला डायसन ! बरसों।
बुद्धन भाई किसी को नहीं बख़्शते थे।भाषा-उच्चारण में ज़रा सी चूक हुई नहीं कि - 'ह’ नू मुखिया जी ! सान्त ?’ शान्त रहो गंगेसर भाई कहने में मुखिया जी सान्त बोल गये सो लाइव माइक पर बुद्धन भाई का जिज्ञासा-ज्वार उफनने लग गया - 'सान्त! ह नू मुखिया जी !’ ऐसी खिंचाई। मेरी ग्रहदशा कुछ अच्छी रही।मैं भैयाकहता भी था।बुद्धन भाई मेरा मजाक नहीं उड़ाते। बाकी उच्चारण त्रुटि पर तो किसी को भी नहीं छोड़ते थे। ख़ुद भला आदमी पाणिणी का अवतार हो गया- लगता था। नये मुखिया जी की तो मुश्किल कर डालते खासकर उनके मैथिली मिश्रित बिहारी हिन्दी तलफ़्फ़ुज़ को लेकर। लेकिन हम दोनों भाई में ऐसी एक समझ बन गई थी कि क्या कहें।
कई दफ़े बुद्धन भाई और हम पहले से विचार कर लेते- ’आज मुखिया जी को कुछ दिक करना है। बस उस दिन तो बुद्धन भाई को नियंत्रित करते-करते मुखिया जी को
पसीना छुट जाता था। लेकिन क्या माहौल था !
एक बार चौपाल में मुर्गी पालन पर कंपीअरिंग होनी थी।हम दोनों भाई ने मिलकर मुखिया जी की ऐसी घिग्घी बंधा दी कि ...।
बुद्धन भाई ने मुझे इशारा कर दिया और मैंने अचानक उस मुर्गी पालन चर्चा में मुखिया जी को पूछ दिया- ‘मुखिया जी यौ,अब तं मुर्गीक चूज़ा सब तं अहाँक भरि डेरा फुदकैत हैत ! आनन्द लगैत हयत !’(मुखिया जी,अब तो आप की मुर्गी के चूजे सब घर भर टहलने लगे होंगे! देखकर आनन्द आता होगा आपको।)
अब तो मुखिया जी के आगे सांप छछूंदर की गति बन आई। कहें-ना कहें। क्योंकि सरकारी प्रसारण हो रहा था और वे चौपाल के मुखिया जी हो करके अगर मुर्गी पालन से इनकार करते हैं तो प्रसारण की विश्वसनीयता का श्रोताओं में नकारात्मक संदेश जाता।सो उस नाटक को निभाना ही था। लेकिन उनके साथ दूसरा संकट अधिक विकट था। उन्होंने कुछ ही दिनों पहले रेडियो चौपाल के मुखिया का कार्यभार संभाला था। शुद्ध कर्मकाण्डी मैथिल ब्राह्मण परिवार के संध्यावंदन वाले परिवार के व्यक्ति थे। और प्रसंग मुर्गा भर नहीं,मुर्ग़ी पालन पर था सो भी अपने घर में। वे घबरा गए। चौपाल बहुत लोगों के द्वारा सुना जाता था। बहुत विस्तृत श्रोता थे। उसके अलावे उनके भद्र मैथिल गांव और परिवार के लोग जिसमें मुख्यतः इनके पंडित पिताजी भी थे वे भी रोज़ सुनते ही थे,सोच कर ही उनकी तो घिग्घी ही बंध गई।मेरे सवाल पर हां कहें ना कहें ! ना कह नहीं सकते थे क्योंकि मुखिया जी थे। हां कहते तो हफ्ता- हफ्ता गांव जो जाते थे तो वहां ग्रामीण,परिवार और पिताजी से कैसे सामना करेंगे कि-'पटना जाते-जाते ही 'महाभ्रष्ट'हो गये। घर में मुर्गी भी पोसने लगे। फिर तो अण्डा भी खाते ही होगे...!'लेकिन सो ऐसे क़िस्से फिर कभी।
हां प्रसारण को सहज जीवन्त करने के लिए हम ये सब सृजनात्मक शरारतें किया करते।लेकिन कहीं से किसी तरह मर्यादा से बाहर नहीं। क्या सामंजस्यपूर्ण कार्यक्रम होते थे! और किस प्यार और लगाव के साथ माइक्रोफोन बरतते थे हमलोग !
ज़िक्र भर रह गया है अब तो। आने वाले वर्षों में इतना भी शायद ही बचा रहे।
बुधन भाई अद्वितीय थे।अद्वितीय।वैसा दूसरा कलाकार मैंने नहीं देखा। बतौर इन्सान भी वे अपने कलाकार से तनिक भी कम नहीं थे।रहन-सहन उनका चाहे जैसा भी अनगढ़ औढर रहा हो परंतु बड़े से बड़े बहुत बढ़ चढ़ कर उनका आदर करते थे। और किसी ने कहा ‘पीने के चलते !’
-’हां सही है।लेकिन तुम को मालूम है एम आई मल्लिक जैसे अनुशासन प्रिय कठिन स्टेशन डायरेक्टर के समय,जो पी हुई हालत में किसी स्टाफ आर्टिस्ट को स्टूडियो में गाते- बजाते हुए जान लेते तो वह अभागा अगली सुबह से स्टाफ आर्टिस्ट नहीं रह जाता था। रेडियो से बाहर।इतनेकड़ियल। लेकिन मालूम है कि बुद्धन भाई को इस तौर पर भीमलिक साहब ने,एक नहीं शायद तीन -तीन बार माफ़ कर दिया था। यह सोच कर कि बग़ैर बुद्धन भाई के तो चौपाल बेजान हो जायेगा।
बुद्धन भाई के बारे में गुरुजी ( केशव पाण्डे जी)भी दिल तक उतर जाने वाले कई और दिलचस्प संदर्भ बताते थे।
मलिक साहब ने भी उनके कलाकार की मर्यादा और और चौपाल तथा उसकी अपार लोकप्रियता में उनकी अहमियत को मान देते हुए उन्हें बचाया था। मामूली सावधानी या चेतावनी देकर। उनकी यह उदारता थी या उस समय रेडियो प्रसारण के प्रति गहरी प्रशासनिक संवेदनशील ता ! वैसे, बुद्धन भाई तो बुद्धन भाई ही थे-आकाशवाणी पटना में ।….
एक बार मैं बाहर पोर्टिको के पास से गुजर रहा था। कुछ-कुछ अंधेरा-सा भी था। वहां एक रिक्शा रुका हुआ था।और देखता क्या हूं कि वह रिक्शावाला भाई रो रहा है और बुद्धन भाई अपनी धोती के छोर से रोते हुए रिक्शा वाले के आंसू पोछ रहे हैं,और उसके संग खुद भी रो रहे हैं।और इधर चौपाल की संकेत धुन पोर्टिको तक गूंजती आ रही है। चौपाल में कंपीयरिंग के लिए ही आए हैं। चौपाल शुरू है और अभी रिक्शा वाले को इस स्नेह वत्सलता से समझा रहे हैं जैसे कोई अपने बिगड़े हुए छोटे भाई को दिलासा देता है। निरंतर अपनी धोती के कोर से उसके आंसू पोंछे जा रहे हैं। बेफिक्र। इसी बीच चिंतित-निराश ड्यूटी आफ़िसर को किसी ने कह दिया कि बुद्धन भाई तो पोर्टिको मे खड़े किसी से बतिया रहे हैं तो सांध्य सभा प्रसाण का वह अभागा डी.ओ. बेचारा हाहाकार करता भागा- भागा उनके पास पहुंच कर बांह पकड़ के खींच रहा है चौपाल एयर पर जा रहा है... यहां क्या कर रहे हैं आप बुद्धन भाई ? चलिए, दौड़िए!'
बुद्धन भाई आराम से उसे झटक देते हैं -’जाय द’ मर्दे ट्रांशमीशन खातिर हम आपन भाई के रोअत छोड़ देब ? ‘
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...तो क्या था कि दोनों वहीं से आ रहे थे -चिड़ैयाटांड़ पुल के नीचे,बायें पुराने बाई पास रोड में जो वह जगह थी ! कितनों की ज़िंदगी,परिवार तबाह कर डालने वाली मनहूस जगह ! जाहिर है डीओ बेचारे को ट्रांसमिशन रिपोर्ट में लिखना ही पड़ा होगा। बुद्धन भाई को क्या पर्वाह !
ऐसे थे बुद्धन भाई !
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प्रिय आनंद और मंटू !
तुमने कहा था न बुद्धन भाई पर कुछ कहने !
कई संदर्भ और संस्मरण हैं लेकिन लिखने और बोलने में आजकल ज्यादा धीरज नहीं रहता। इसलिए इतना ही अभी।
Source : Gangesh Gunjan