आकाशवाणी की सेवा में मुझे भेजने का श्रेय जिन्हें प्राप्त है वे थे आदरणीय आचार्य प्रतापादित्य जो मेरे पिता ,दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में विधि शिक्षक तथा मेरे आध्यात्मिक साधना पथ के आचार्य भी थे ।वे पहले आकाशवाणी लखनऊ के कृषि कार्यक्रम के वार्ताकार थे और बाद में आकाशवाणी गोरखपुर की स्थापना के बाद आकाशवाणी गोरखपुर के ।शुरुआती दौर में ही उनका परिचय निदेशक श्री इन्द्र कृष्ण गुर्टू से हुआ जो आगे के बरसों में घनिष्ठता में तब्दील हो गया ।मेरी साहित्यिक सांस्कृतिक अभिरुचि को देखते हुए उनके मित्रों सर्वश्री मुक्ता शुक्ल(आकाशवाणी लखनऊ)और हरिराम द्विवेदी (आकाशवाणी गोरखपुर)आदि ने मुझे राह दिखाई और 1975-76 में आकाशवाणी लखनऊ में सम्पन्न इंटरव्यू के आधार पर सीधी नियुक्तियों में मेरा चयन प्रसारण अधिशाषी रूप में हुआ था ।मेरे पिता स्थानीय समाचार पत्रों में योग और अध्यात्म के नियमित कालम लिखते थे ।वे आजीवन आकाशवाणी गोरखपुर के नियमित वार्ताकार रहे ।कानून सम्बन्धित वार्ताओं में सहभागिता के अतिरिक्त विविध भारती मुम्बई के "चिन्तन बिन्दु "कार्यक्रम के लिए भी उन्होंने कई आलेख लिखे थे ।
24मई 1933 को ग्राम विश्वनाथपुर(सरया तिवारी) विकास खंड खजनी जिला गोरखपुर में प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण कुल में जन्मे आचार्य जी के पिता पं० भानु प्रताप राम त्रिपाठी और मां श्रीमती पार्वती देवी थीं ।बी० ए० तक की शिक्षा गोरखपुर में और एम० ए०(राजनीति शास्त्र) और एल० एल० बी० की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुई ।26 फरवरी वर्ष 1948 में उनका विवाह जस्टिस एच० सी० पी० त्रिपाठी की बड़ी पुत्री श्रीमती सरोजिनी से हुआ जो बचपन में ही अपनी मां की ममता से वंचित हो चुकी थीं और मात्र हाई स्कूल तक पढ़ी थीं ।वे 1959 में एक अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत होकर सिविल कोर्ट गोरखपुर में प्रैक्टिस करते हुए 1966 से 1979 तक जिला शासकीय अधिवक्ता फौजदारी के रूप में अपनी उल्लेखनीय सेवाएं देते रहे ।साथ ही 1964 से 2000 तक वे गोरखपुर विश्वविद्यालय में अंशकालिक विधि प्रवक्ता के रूप में काम करते रहे ।उधर उन्होंने अपनी पत्नी को उच्च शिक्षा पाने के लिए प्रोत्साहित किया और उन्होंने एम० ए० राजनीति तक की शिक्षा परिवार संभालते हुए पूरी की ।लोगों के लिए उत्सुकता का विषय यह रहा कि उनकी बड़ी बेटी विजया जब बी० ए० कर रही थी तो वे भी उन्हीं के साथ एम० ए० की पढ़ाई हेतु यूनिवर्सिटी जाती थीं ।आचार्य जी की आजीविका का साधन कानून था किन्तु उनके मन में बचपन से ही साहित्य और अध्यात्म का अथाह समुन्दर हिलोरें मानता था जो अवसर पाते ही सामने आ जाता ।उन्हें फोटोग्राफी, ज्योतिष, होमियोपैथी, आयुर्वेद चिकित्सा का अतिरिक्त शौक था ।उनके ज्योतिष और तंत्र -मंत्र ज्ञान से कई लोग प्रभावित थे ।इन दिनों कई चैनलों पर ख्याति पा रहे पंडित शैलेन्द्र पांडेय भी उनके निकटतम शिष्यों में से एक हैं ।अपनी गहन रुचि और चिन्तन -सृजन के चलते गोरखपुर में उन्हें योग,तंत्र और अध्यात्म का एक प्रमुख विशेषज्ञ भी माना जाने लगा ।गोरखनाथ मंदिर के समारोहों में उन्हें बुलाया जाता था ।वे आनन्द मार्ग के एक वरिष्ठ गृही आचार्य तो थे ही ,थियोसाफिकल लाज के अध्यक्ष भी थे ।आज, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा, कल्याण, योगवाणी, भक्त समाज, सत्यकथा, नूतन कहानियाँ, सरिता आदि के लेखक थे ।मुझे याद है कि उन दिनों श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के संपादन में छपने वाले कल्याण के एक अंक में उनके प्रकाशित लेख "गोरखपुर की एक आध्यात्मिक विभूति-स्वामी योगानन्द"ने पत्रिका के बुजुर्ग पाठकों में तहलका मचा दिया था ।हजारों की संख्या में पाठकों के जिज्ञासा भरे पत्र आते रहे और वे सभी की जिज्ञासा शांत करते रहे ।यह क्रम वर्षों चला था ।आपातकाल में उन्हें भी पहले डी० आई० आर० फिर रा० सु० का० की चपेट में आकर हफ्तों गोरखपुर जेल में रहना पड़ा था और पं० सुरति नारायण मणि त्रिपाठी के हस्तक्षेप से मीसा में निरुद्ध होने से बचे ।हां, उन्हें सरकारी वकालत ज़रूर छोड़नी पड़ी और कुछ दिन तंगहाली में भी गुजारने पड़े ।
बावज़ूद इसके वे अपने गुरु आनन्द मूर्ति जी के प्रति अंत तक निष्ठावान बने रहे । जीवन के इन ऊबड़खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए भी उनके व्यक्तित्व की शांति और सौम्यता हर समय बनी रहती जो उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा के कारण ही संभव था ।मैं उनका मंझला पुत्र था और मुझे उन्होंने कानून की पढ़ाई के दूसरे और तीसरे सत्रों में "ला आफ़ कान्ट्रेक्ट "और "ला आफ़ इविडेंस"पढ़ाया था ।इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि जीवन में उन्होंने ही मुझे अध्यात्म की राह दिखाई और वे ही मेरे आचार्य बने ।अनुशासन के वे बड़े सख़्त थे ।बात उन दिनों की है जब हम गोरखपुर के अलहदादपुर में कच्चे घर में किराये पर रहते थे ।एक बार बचपन में मैं सड़क पर गिरी, बुझी हुई बीड़ी ,शौक से मुंह में लगाए घूम रहा था कि विनोद बारी नामक सहायक ने मेरे इस स्टाइल को देखकर कचहरी से आते ही इस घटना की पिताजी से चुगली कर डाली ।फिर क्या था ।पिताजी ने एक बंडल बीड़ी मंगवाई और नौकर से उसे सुलगवा कर मेरे हाथ में देते हुए कहा अब फूंक मारो और पूरी बंडल पियो ।मुझे काठ मार गया ।दो कश लेते लेते खांसने लगा और अन्ततः उल्टी होने लगी ।मेरी अम्मा ने आकर मुझे बचाया ।लेकिन उनकी यह सीख आजीवन काम आई और मैं धुम्रपान से बचा ही रहा ।आनन्द मार्ग के गुरुदेव आनन्द मूर्ति जी की उन पर विशेष कृपा थी और उन्होंने कुछ सीमित लोगों के साथ उन्हें भी तात्विक और फिर विशेष योग की दीक्षा स्वयं दी थी ।उनकी निकटता का एहसास मुझे स्वयं तब हुआ जब पर्सनल कान्टेक्ट में खुद "बाबा"(आनन्द मूर्ति जी का पुकार नाम) ने मुझसे कहा कि "प्रतापादित्य मेरे प्रिय पुत्र समान हैं और चूंकि तुम उनके लौकिक पुत्र हो तो तुम भी मेरे प्यारे पुत्र हुए ।"अब ये सब बातें सपना समान प्रतीत होती हैं क्योंकि आज न तो "बाबा"सशरीर इस धरती पर हैं और न ही मेरे पिता, मेरे आचार्य ....!पहली मई 2012 को उन्हें गले के कैंसर के कारण अपना पंचभौतिक शरीर छोड़ना पड़ा ।
बावज़ूद इसके वे अपने गुरु आनन्द मूर्ति जी के प्रति अंत तक निष्ठावान बने रहे । जीवन के इन ऊबड़खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए भी उनके व्यक्तित्व की शांति और सौम्यता हर समय बनी रहती जो उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा के कारण ही संभव था ।मैं उनका मंझला पुत्र था और मुझे उन्होंने कानून की पढ़ाई के दूसरे और तीसरे सत्रों में "ला आफ़ कान्ट्रेक्ट "और "ला आफ़ इविडेंस"पढ़ाया था ।इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि जीवन में उन्होंने ही मुझे अध्यात्म की राह दिखाई और वे ही मेरे आचार्य बने ।अनुशासन के वे बड़े सख़्त थे ।बात उन दिनों की है जब हम गोरखपुर के अलहदादपुर में कच्चे घर में किराये पर रहते थे ।एक बार बचपन में मैं सड़क पर गिरी, बुझी हुई बीड़ी ,शौक से मुंह में लगाए घूम रहा था कि विनोद बारी नामक सहायक ने मेरे इस स्टाइल को देखकर कचहरी से आते ही इस घटना की पिताजी से चुगली कर डाली ।फिर क्या था ।पिताजी ने एक बंडल बीड़ी मंगवाई और नौकर से उसे सुलगवा कर मेरे हाथ में देते हुए कहा अब फूंक मारो और पूरी बंडल पियो ।मुझे काठ मार गया ।दो कश लेते लेते खांसने लगा और अन्ततः उल्टी होने लगी ।मेरी अम्मा ने आकर मुझे बचाया ।लेकिन उनकी यह सीख आजीवन काम आई और मैं धुम्रपान से बचा ही रहा ।आनन्द मार्ग के गुरुदेव आनन्द मूर्ति जी की उन पर विशेष कृपा थी और उन्होंने कुछ सीमित लोगों के साथ उन्हें भी तात्विक और फिर विशेष योग की दीक्षा स्वयं दी थी ।उनकी निकटता का एहसास मुझे स्वयं तब हुआ जब पर्सनल कान्टेक्ट में खुद "बाबा"(आनन्द मूर्ति जी का पुकार नाम) ने मुझसे कहा कि "प्रतापादित्य मेरे प्रिय पुत्र समान हैं और चूंकि तुम उनके लौकिक पुत्र हो तो तुम भी मेरे प्यारे पुत्र हुए ।"अब ये सब बातें सपना समान प्रतीत होती हैं क्योंकि आज न तो "बाबा"सशरीर इस धरती पर हैं और न ही मेरे पिता, मेरे आचार्य ....!पहली मई 2012 को उन्हें गले के कैंसर के कारण अपना पंचभौतिक शरीर छोड़ना पड़ा ।
गोरखपुर शहर एक जमाने में ज़र, ज़मीन और जोरू के चलते दीवानी और फौजदारी मामलात के लिए चर्चित रहा है ।इसी को ध्यान में रखकर आकाशवाणी गोरखपुर से 1995 से एक दशक से ज्यादा अवधि तक श्रोताओं के पत्रों पय आधारित एक साप्ताहिक कार्यक्रम प्रसारित होता रहा - "कानूनी सलाह "जो बहुत ही लोकप्रिय रहा ।इसमें श्रोताओं के कानून सम्बन्धित प्रश्नों का विशेषज्ञ जबाब देते थे ।आचार्य जी को इसमें अक्सर बुलाया जाता था ।आचार्य जी ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं जिनमें कुछ प्रमुख हैं-अवधूत गीता, विद्वतजनों की दृष्टि में आनन्द मूर्ति जी, थारू का कुंआ(बड़े पुत्र प्रोफेसर सतीशचन्द्र त्रिपाठी के सौजन्य से प्रकाशित), दिव्य चक्षु, शब्द चयनिका,परामनोविज्ञान, अष्टवक्र गीता, श्रीकृष्ण की गुरु दक्षिणा ,अनुभूतियों के गीत ,श्रीमदभागवत सारतत्व प्रदीपिका(पुत्री प्रतिमा राकेश के सौजन्य से प्रकाशित )भागवत धर्म, पथ कथा, राजयोग, ईश्वर दर्शन: भ्रान्ति और सत्य,समन्वित चिकित्सा निदेशिका,आदि ।आचार्य जी ने अपनी पत्नी सरोजिनी को (जो बचपन में ही मातृसुख सें वंचित हो गई थीं) अगर अल्पशिक्षित से सुशिक्षित होने की राह दिखाई तो उनकी पत्नी ने उनकी धर्म साधना में अनेकों संकट सहकर अनवरत सहायक बने रहने का संकल्प ले लिया था जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक "अनुभूतियों के गीत"के आमुख में स्वीकारा है ।
रिश्तों की किताब में आचार्य प्रतापादित्य को मैं एक पिता, एक आचार्य और एक मार्ग दर्शक के रूप में अब भी सूक्ष्म रूप में अपने साथ पाता हूँ ।अपने पिता के लिए जय चक्रवर्ती के शब्दों में कहना चाहूँगा - "पिता आदि से अंत तक ,गुलमोहर के फूल ।खिले खिल रहते भले ,मौसम हो प्रतिकूल।"आकाशवाणी गोरखपुर में मैं आज भी जब जाता हूँ तो लोग उनको याद करते हैं ।उनकी चौथी पुण्यतिथि पर नगर निगम गोरखपुर की महापौर श्रीमती सत्या पांडेय ने उनके बेतियाहाता स्थित आवास के मार्ग का नामकरण उनके नाम पर करने की घोषणा की है जो शहर के नागरिकों की उनके प्रति श्रद्धांजलि का अमर प्रतीक बनने जा रहा है ।सचमुच ऐसे कर्मयोगी गृहस्थ सन्यासी की समाज सेवा के प्रति प्रसार भारती परिवार भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है ।
"इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनियां,
कोई जल्दी में ,कोई देर से जानेवाला !"
ब्लॉग रिपोर्ट - श्री. प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी, लखनऊ; मोबाइल नंबर 9839229128 ;ईमेल;darshgrandpa@gmail com