नमस्कार. जो लोग रेडियो से किसी भी रूप में जुड़े हुए रहे हैं, अच्छी तरह जानते हैं कि चाहे कोई भी कार्यक्रम हो, कैसा भी कार्यक्रम हो, हरेक के पीछे एक टीम के सामूहिक प्रयास होते हैं. कार्यक्रम की रूपरेखा बनने से लेकर उसके श्रोताओं के कानों तक पहुँचने तक न जाने कितने कलाकारों और अफसरों के मस्तिष्क में मंथन होता है, कितने तकनीकी हाथ मशीनों से संघर्ष करते हैं, कितने कार्यक्रमकर्मी अपने बच्चे की बीमारी या लड़ाकी पत्नी के तानों से जूझते हुए स्टूडियो पहुंचते हैं और सब कुछ भुलाकर घंटों स्टूडियो में एकाग्रता से लगकर काम करते हैं तब जाकर किसी छोटे से कार्यक्रम का जन्म होता है. ज़ाहिर है कि कार्यक्रम से जुड़ा हर व्यक्ति प्रसारण में अपना एक अलग स्थान रखता है, लेकिन अमूमन कार्यक्रम के निर्माण में जुटे लोगों में से बहुत कम ऐसे होते हैं, जिनका सीधा वास्ता लाइव माइक्रोफोन से पड़ता है. लाइव माइक्रोफोन यानी सर पर लटकती एक तलवार. आपका हाथ गलत पड़ गया, आपकी निगाहें घड़ी देखने में धोखा खा गईं, आपकी जुबान लड़खड़ा गयी, आपकी निगाह सही उद्घोषणा की जगह नीचे वाली उद्घोषणा पर चली गयी, आप उद्घोषणा करने लगे कि कोई स्टूडियो में आ घुसा, आपका दिमाग एक क्षण के लिए कहीं भटक गया....... इस प्रकार की एक सौ एक संभावनाएं हैं कि आप लाइव माइक्रोफोन पर गलती कर बैठेंगे और वो जो तलवार आपके ऊपर लटकी हुई है, बिना चूके सीधे आपके सर पर आ गिरेगी. किसी फ़ाइल में लिखी गयी नोटिंग को तो आप काटकर या इरेज़ कर उसकी जगह दुबारा नोटिंग कर सकते हैं, लेकिन लाइव माइक्रोफोन आपको अपनी गलती सुधारने का ऐसा कोई अवसर नहीं देता.
यों तो रेडियो में काम करने वाले हर व्यक्ति को लाइव माइक्रोफोन पर जाने के लिए तैयार रहना पड़ता है, लेकिन अधिकाँश लोगों को गाहे बगाहे ही ऐसा मौक़ा मिलता है. रेडियो पर काम करने वाले हम सभी लोगों ने अपने रेडियो जीवन में ऐसी ऐसी घटनाएं देखी हैं कि जिन लोगों ने कभी ख्वाबोखयाल में भी लाइव माइक्रोफोन पर जाने का नहीं सोचा होगा, हालात ऐसे बन गए कि उन लोगों को भी लाइव माइक्रोफोन पर जाना पड़ा. 1975 की बात है. मैंने अपने जीवन में कुल 12 ड्यूटीज एक कैजुअल अनाउंसर के तौर पर की हैं, उन्हीं में से एक ड्यूटी थी. ट्रांसमीटर शहर से बहुत दूर था. सर्दी का मौसम था. जो स्टाफ कार हमें घर से पिक अप करने आती थी, नहीं आई. इतनी दूर जाने का न मेरे पास कोई साधन था और ना ही ड्यूटी ऑफिसर के पास. एक इन्जीनियर के पास खटारा सा लैम्ब्रेटा स्कूटर था, वो तो स्टूडियो पहुँच गये, मगर लाइव माइक्रोफोन के नाम से इंजीनियर साहब के हाथ पाँव फूल गए. आखिरकार एक सिक्योरिटी गार्ड श्री रामकरण ने स्टेशन की शुरुआत की और जैसा समझ में आया प्रसारण किया, लेकिन रेडियो बंद नहीं रहने दिया. रेडियो चला और अपने तयशुदा वक्त पर ही चला.
ये तो खैर उन लोगों की बात थी जिन्हें हमेशा लाइव माइक्रोफोन पर नहीं जाना पड़ता लेकिन उन लोगों के जीवन कितनी कहानियों से अटे पड़े होंगे, जिन्हें हर रोज लाइव माइक पर जाना होता है. जीवन में कितनी कितनी विपरीत परिस्थितियों में उन्हें लाइव प्रसारण करने पर मजबूर होना पड़ा होगा और कितनी बार स्टूडियो में आने से ठीक पहले किसी अफसर ने जाने अनजाने डांटकर उनके दिमागी तवाज़ुन को तहस नहस कर दिया होगा. कितनी ही बार लाइव प्रसारण में ऐसी परिस्थितियाँ खडी हो गयी होंगी कि प्रसारणकर्ता अपनी हंसी को बड़ी मुश्किल से रोक पाए होंगे. कभी स्टूडियो में घुसकर किसी चूहे ने नचा दिया होगा तो कभी सूरतगढ़, कोटा, बीकानेर जैसे स्टेशनों पर साक्षात नागदेवता आकर कंसोल पर विराजमान हो गये होंगे.
ऐसी ना जाने कितनी परिस्थितियों का सामना अगर अक्सर किसी ने किया होगा तो वो हैं रेडियो के उद्घोषकगण, जो रेडियो का चेहरा होते हैं क्योंकि कार्यक्रम चाहे कैसा भी हो, अगर उद्घोषक उसे सजाकर श्रोताओं के सामने पेश करेंगे, तो तय है कि वो प्रोग्राम श्रोताओं को पसंद आएगा. चाहे कितने ही लोग किसी प्रोग्राम से जुड़े होने का दावा करने के लिए अपना नाम उस प्रोग्राम के साथ अनाउंस करवा लें, श्रोता उनके नाम को सुन तो लेगा, लेकिन पहचानेगा सिर्फ और सिर्फ उद्घोषक को. श्रोता के जेहन में अगर किसी की तस्वीर बनेगी तो सिर्फ अनाउंसर की ही बनेगी. उसे कहाँ पता होता है कि उसका प्रिय अनाउंसर किन किन हालात से जूझता हुआ लाइव स्टूडियो में काम करता है? कितने लोग जानते हैं कि अनाउंसर के सामने लगी ऑन एयर की लाल बत्ती कई बार सपने में आकर उसकी रातों की नींद उड़ा देती है?
अफ़सोस की बात ये है कि इतने चुनौतीभरे काम को अंजाम देने वाले लोगों के अनुभव, आज तक उन श्रोताओं तक बहुत कम पहुंचे हैं, जिनके वो रोल मॉडल रहे हैं. पिछले दिनों मेरी एक शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक के सम्बन्ध में, एक पुराने सहकर्मी श्री हरि मालवीय से फोन पर बात हो रही थी. हरि मालवीय जी उन दिनों आकाशवाणी, इलाहाबाद पर सलैक्शन ग्रेड उद्घोषक थे जबकि मैं वहाँ कार्यक्रम अधिशाषी था. उन्होंने मुझे कहा, क्यों न हम दोनों मिलकर एक पुस्तक तैयार करें जिसमें पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्र के उद्घोषकों के अनुभवों और संस्मरणों को संकलित करें. विषय मुझे अच्छा और अछूता लगा. श्रोता भी अपने चहीते उद्घोषकों के अनुभव पढकर आनंदित होंगे और ये अनुभव निश्चित रूप से अन्य पाठकों के मन को भी अच्छे लगेंगे.
आप भी रेडियो के लाइव माइक से जुड़े रहे हैं. आपके पास भी अपने श्रोताओं को, अपने से आगे वाली पीढ़ियों को सुनाने के लिए बहुत कुछ होगा. आपसे हमारा आग्रह है कि अपने एक या दो अत्यंत आकर्षक संस्मरण निम्न ईमेल आई डी पर भेजें या निम्न दो पतों में से किसी एक पर पोस्ट के द्वारा भेजें.
हमें पूरा भरोसा है कि आप अपने जीवन के सुन्दरतम क्षणों को याद करते हुए अत्यंत रोचक संस्मरण ही प्रकाशन हेतु भेजेंगे क्योंकि वो आपके पूरे जीवन का प्रतिनिधित्व करेंगे, फिर भी अनुग्रह पूर्वक प्रार्थना है कि कृपया इसे किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना का ज़रिया ना बनाएँ और कुछ ऐसा लिखें जिससे आने वाली प्रसारण कर्मी पीढियां कुछ प्रेरणा ले सकें.
Email – mahendraharionair@gmail.com
डाक से भेजने के लिए पता- A-6, Sai Gharkul,
Plot no.66, Gorai-2,
Borivali(w)
Mumbai-400091
और
29/83B, Shilakhana
Teliyarganj,
Allahabad-211004
अंत में निवेदन है कि कृपया रचना के साथ अपना एक रंगीन छायाचित्र भी प्रेषित करें.किसी संशय की स्थिति में हम दोनों में से किसी से भी फोन पर संपर्क कर सकते हैं.
सादर.
महेंद्र मोदी,
सेवा निवृत्त चैनल प्रमुख,
विविध भारती, मुम्बई
फोन: 022-28673687/9321686329/9324686329/7977229953
एवं
हरि मालवीय
सेवा निवृत्त सलैक्शन ग्रेड उद्घोषक
आकाशवाणी, इलाहाबाद
फोन: 0532-2545478/07499520615