समन्वित भारतीय संगीत के महासागर में बीसवीं सदी को इसके सर्वतोमुखी विकास की सदी मानी जा सकती है ।पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने भातखंडे संगीत शास्त्र के माध्यम से पुराने राग ग्रन्थों में निरूपित राग स्वरूपों का नीर क्षीर विवेक सिद्धांत पर मूल्यांकन करते हुए उसे आधुनिक सन्दर्भों में परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया था ।आचार्य बृहस्पति ने महर्षि भरत द्वारा निर्दिष्ट श्रुति, स्वर, ग्राम और मूर्छना पद्धति का सप्रयोग स्पष्ट करके संगीत जगत की अविस्मरणीय सेवा की ।ठाकुर जयदेव सिंह सहित कुछ अन्य भारतीय और विदेशी विद्वानों ने संगीत शास्त्र के सिद्धांत और क्रियापक्ष को परिष्कृत रूप उपस्थित किया ।आकाशवाणी गोरखपुर और उससे पहले लखनऊ केन्द्र से जुड़े मान्यताप्राप्त सितार वादक कलाकार और संगीतशास्त्र के विशेषज्ञ पं० देवेन्द्र नाथ शुक्ल ने लगभग 50वर्षों की गहन साधना करने के बाद मोक्षमूलक संगीत के आध्यात्मिक विवेचन को अपनी "राग जिज्ञासा"नामक पुस्तक में एक नये और रुचिकर रूप में प्रस्तुत किया है जिसे पिछले दिनों वाराणसी के विश्वविद्यालय प्रकाशन ने प्रकाशित किया है ।
इस सचित्र पुस्तक में लेखक द्वारा 16 अध्यायों में नाद ब्रम्ह, ध्रुवपद, पद एवं ख़याल,राग के विविध पक्ष, वर्तमान संगीतशास्त्र और लोकधुन,लय-ताल एवं मात्रा, ताल-वाद्य और ध्वनि, घराना, स्वर-रस एवं राग, वर्तमान रागनियम, अप्रचलित राग, नवनिर्मित राग, राग-समय और मुद्रित संगीत पर प्रकाश डालते हुए संगीत साधकों के अनुभवों को भी समाहित किया गया है ।एक बेहद रोचक अध्याय संगीतकारों, देवालयों और राजघरानों में किन्हीं दौर में टंगे और अब संग्रहालयों की थाती बने उन पेन्टिंग्स पर भी लिखा गया है जो राग रागिनियों पर केन्द्रित हैं ।जैसे रागिनी, मल्लारी; चित्रकार-जगदीश वर्मा; आधुनिक पेंटिंग(संभवतः किसी प्राचीन चित्र का नवीनीकरण भी हो सकता है) जिसकी परिचायक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-रूदन करत फिरै, धीरज उधरे पुनि पिय गुन जपन कूं माला कर धारी है ।ध नि स ग म भुवन धैवत सुर, जाति औंडो ध्वनि स बरखा गुनी मलहारी सुनारी है ।लेखक की इस पुस्तक के बारे में यह साफगोई कि "......संगीत जगत के ये कुछ पक्ष मात्र हैं।पं० भातखंडे के निर्देश पालन स्वरूप यथा सामर्थ्य किए इस प्रयत्न में कुछ नवीन अथवा मौलिक कर दिखाने का अपना दावा नहीं है..."पाठकों को और ज्यादा आश्वस्त करती है ।
मूलतः नेपाल के बनगाईं गांव में जमींदार परिवार में 13जुलाई 1927 को जन्मे श्री शुक्ल ने अपने चाचा पं० विश्वम्भरनाथ शुक्ल के संगीत प्रेम से आकृष्ट होकर मात्र पांच वर्ष की उम्र में ही सितार वादन संगीत को अपना जीवनाधार बनाने का संकल्प ले लिया था ।संगीत में गहराई से पैठ बनाने की नीयत से गोरखपुर के एक तबला वादक शाह साहब ने इनको 1958 में राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा पुरस्कृत सितार की सेनिया परम्परा की लखनऊ शाखा के प्रवर्तक उस्ताद युसुफ अली खां साहब से मिलवाया और खां साहब ने इन्हें 26नवम्बर1953 को गन्डाबन्धन करके विधिवत शागिर्द बनाया ।सनद रहे कि ये वही उस्ताद थे जिन्हें 1911में सम्राट जार्ज पंचम की ताजपोशी के मौके पर ख़ास तौर से इन्हें भी कुछ अन्य कलाकारों के साथ सितार वादन के लिए 11महीनों के लिए लंदन बुलाया गया था और जिस दौरान उस्ताद जी ने तूंबे के स्थान पर शुतुरमुर्ग के अन्डे का प्रयोग करके सितार बनाकर लोगों को अचंभित कर दिया था ।
इस पुस्तक के बहाने आज पं० देवेन्द्र नाथ शुक्ल की यादें ताजी हो उठी है ।आकाशवाणी गोरखपुर केन्द्र अभी नया नया अस्तित्व में आया था और अच्छे कार्यक्रमों का अभाव था कि तत्कालीन निदेशक इन्द्रकृष्ण गुर्टू ने 1975-76में आधे घन्टे अवधि और 11एपिसोड का"पुरानी यादें"नामक कार्यक्रम प्रस्तुत करने का अवसर दिया जिसमें लगभग एक सौ वर्ष के गायन वादन की सव्याख्या सोदाहरण प्रस्तुति ने संगीतप्रेमी श्रोताओं को चमत्कृत कर दिया था ।अपनी गोरखपुर में नियुक्ति के दौरान मैं भी उनके बेहद करीब आ गया था ।बेतियाहाता के अपने निजी आवास के एक भव्य हाल में उनकी नियमित संगीत साधना चलती रहती थी ।इतना ही नहीं प्रतिभाशाली शुक्ल जी की साहित्य और संस्कृति की शोधात्मक रुचि थी और उन्होंने दो अन्य शोधपूर्ण पुस्तकें भी लिखीं हैं -"एक संस्कृति: एक इतिहास"और "ब्राह्मण समाज का ऐतिहासिक अनुशीलन"जिसे उ० प्र० सरकार के हिन्दी संस्थान ने पुरस्कृत भी किया था ।पं० देवेन्द्र नाथ शुक्ल का निधन 17दिसम्बर 2006 को गोरखपुर में हो गया था किन्तु अपने संगीत औय साहित्य प्रेम के चलते वे हमेशा स्मृतियों में रचे बसे हुए हैं ।प्रसार भारती परिवार की ओर से संगीत के क्षेत्र में उनके इस अविस्मरणीय योगदान की सराहना की जाती है ।
ब्लॉग रिपोर्ट-प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी, लखनऊ; मोबाइल नंबर 9839229128