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रेडियोनामा.....बात रेडियो की - वैभव कोठारी द्वारा

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वर्ष 1985-86 खण्डवा जंक्शन से उत्तर दिशा में कोई 30 किलोमीटर दूरी पर बसा ग्राम बाँगरदा। मेरा पैत्रक गाँव। मुख्य सड़क के अलावा कहीं बिजली नहीं थी। मनोरंजन के लिये गिल्ली-डंडा और चौपाल। बड़े-बड़े घर आँगन। पड़ोस के बूढ़ी अम्मा को गीत सुनने का बड़ा शौक था। शहर जाकर मर्फी रेडियो ले आयी। काले रंग का बड़ा सा रेडियो। रेग्जीन के कवर में। उसमें एक बड़ा सा पट्टा भी लगा था ताकि रेडियो को कंधे पर लटकाया भी जा सकें। रेडियो में चार बड़े-बड़े, मोटे सेल लगते थे। उसी से चलता था। बूढ़ी अम्मा उसे तेज़ आवाज़ में चलाती। आधा गाँव उससे फ़िल्मी गीत सुनता, लोकगीत और समाचार भी। लोगों का मनोरंजन होता। मैंने तो बूढ़ी अम्मा का नामकरण ही कर दिया- "रेडियो वाली माय।"मैं रेडियो को नज़दीक से देखना चाहता, लेकिन वो मुझे रेडियो छूने तक न देती। फ़िर एक दिन उसकी नसवार ख़त्म हो गई। उसने मुझे नसवार लाने को कहा। मैंने भी शर्त रख दी- "नसवार तो ला दूँगा लेकिन एक बार मुझे गोद में रेडियो लेकर गाना सुनने दो!"
वो बेचारी तो सर्दी से परेशान थीं, दे दिया उसने रेडियो मेरी गोद में और मैंने भी उसे नसवार ला दिया। फ़िर क्या था, उसकी और मेरी दोस्ती पक्क़ी हो गई। मैं रोज़ ही रेडियो अपनी गोद में लेकर सुनता। कभी उसके स्पीकर को अपनी दोनों हथैलियों से दबाकर आवाज़ को धीमी कर देता।
एक दो हफ़्तों बाद ही रेडियो की आवाज़ धीमी पड़ने लगी। ख़टर-ख़टर की आवाज़ आने लगी। रेडियो के सेल कमज़ोर पड़ गये थे। गाँव में कहीं भी सेल मिलते नहीं थे।
किसी ने कहा- "रेडियो वाली माय! सेल को तेज़ धूप में रख दो चार्ज हो जायेंगे।"
रेडियो वाली माय ने ऐसा ही किया। लेकिन धूप से भी कभी सेल चार्ज हुए हैं?? सेल मुझे खेलने के लिए दे दिये गये। मैं सेल ज़मीन पर लुढ़काया करता और सोचता सेल ख़राब हो गये तो मुझे दे दिये। रेडियो ख़राब हुआ तो वो भी मैं ही ले आऊँगा, अपने खेलने के लिये।
इसी बीच एक बकरी चरानेवाला भी रेडियो ख़रीद लाया। आगे-आगे उसकी बकरियाँ चलती और पीछे-पीछे अपने कान से रेडियो लगाये वो। गाँव वाले कहते जंगल में जाकर वो अपना रेडियो पेड़ पर टाँग देता है और आराम से गाने सुनता है, अंग्रेजी के समाचार भी।
समय बीतता गया। हम बाँगरदा छोड़कर बोरगाँव आ गये। बोरगाँव में बहुत से घरों में रेडियो थे। मेरे पड़ोसी के यहाँ भी। गाँव वाले अपनी घड़ी रेडियो से ही मिलाते थे। रेडियो से गीत गूँजते रहते।
मेरे अंकल देवास से एक छोटा सा ट्रांजिस्टर लेकर आये। इसमें पेंसिल सेल लगते थे। लाल रंग का ये ट्रांजिस्टर आकार में पोस्टकार्ड से थोड़ा ही बड़ा होगा। उसमें एक एरियर था। पुलिस के वॉकी-टाकी जैसा।
खण्डवा पड़ोस में एक बूढ़े बाबा रहते थे। उनके रेडियो की वॉल्यूम बटन अन्दर धँस गई थी। जब भी वॉल्यूम तेज़ या कम करना होती वें मुझे कहते। मेरी पतली अँगुली वॉल्यूम बटन तक आसानी से पहुँचती थी। खण्डवा स्थित मेरे घर पर भी अब एक बड़ा सा रेडियो था। लकड़ी के बॉक्स से बना हुआ दो स्पीकर वाला। "आयोडेक्स"के ढक्कन जैसी बड़ी-बड़ी बटन थी उसकी। मैं बटन को घुमाता और काँटे को इधर-उधर सरकते हुए देखता।
अमित अंकल की कहानी जब भी आती फूल वॉल्यूम पर सुनी जाती- "घने जंगलों से गुज़रता हुआ मैं कहीं जा रहा था।"
इसी बीच पुराने कैसेट प्लेयर में भी F.M. प्लेट लगाकर रेडियो बनाये जाने लगे। लगभग 100 रुपये के ख़र्च में कैसेट प्लेयर "टू इन वन"बन जाता था। उसके बॉक्स स्पीकर में रेडियो सुनने का आनन्द ही कुछ और था।
मेरे ननिहाल में पाटीदार मामा ने अपने घर के बाहर एक स्पीकर लगा दिया था जो घर के भीतर रेडियो से कनेक्ट था। इसमें उन्हें लगभग 100 फीट लम्बी बिजली की केबल लगी थी। रेडियो से जोड़ते ही सड़क से गुज़रते लोग भी रेडियो का आनन्द लेते। लेकिन किसी ने इसकी आवाज़ पर आपत्ति नहीं ली। रेडियो चीज़ ही ऐसी है।
जब मैं इन्दौर हॉस्टल में रहता था तब मेरा एक मित्र रेडियो अपने साथ ले आया था। दिनभर "रेडियोमिर्ची"चलता रहता। इन्दौर के ही फुटपाथ पर मैंने एक छोटा सा पॉकेट रेडियो ख़रीदा। इसमें ईयरफ़ोन थे, और टॉर्च भी। फाउन्टेन पेन की आकृतिवाले इस रेडियो में "रेडियोमिर्ची"चलता था।
सन 1992 में मैंने पहली बार आकाशवाणी केन्द्र, खण्डवा देखा। वो भी बाहर से। इतना ऊँचा टॉवर! सोचा कि मैं भी कभी रेडियो से बोलूँगा और सब सुनेंगे। उद्घोषक के लिए आवेदन भी किया था। लेकिन ध्वनि परीक्षण में बाहर कर दिया गया। दो वर्ष पूर्व होली पर आकाशवाणी पर मैंने काव्यपाठ किया। जब प्रसारण हुआ तो समझ में आया कि ध्वनि परीक्षकों का निर्णय सही था। मेरी एक बहन और एक सहपाठी रेडियो के उद्घोषक हैं। उन्हें सुनता हूँ तो गर्व से फूला नहीं समाता हूँ।
फ़िलहाल रेडियो की बात.....अब भी मेरे पास दो रेडियो हैं। एक पलंग के सिरहाने रहता है। विविध भारती ख़ूब सुनता हूँ। FM गोल्ड भी। कितना ज्ञानवर्धक है, रेडियो। इसके प्रसारण में फूहड़ता नहीं। लम्बें-लम्बें कामर्शियल ब्रेक नहीं। रेडियो चलता है, अपना काम भी चलता है। कोई व्यवधान नहीं। सस्ता मनोरंजन।
रेडियो का प्रसारण निःशुल्क सुनते रहे हैं। आशा है, आगे भी निःशुल्क ही रहेगा।
चलते-चलते बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि- "जीना है तो खुल कर जियो! आप सुनते रहो रेडियो!"

Source : ‎Parvesh Ankar

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