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?????~वर्ल्ड रेडियो डे पर विशेष: आज का दौर है रेडियो का स्वर्णिम काल

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सुबह से सोशल मीडिया पर कई धुरन्धर लोगो की पोस्टों पर यह पढ़ते पढ़ते थक गया कि कोई और दौर रेडियो का स्वर्णिम युग हुआ करता था, तब फलाना ढेमाका ऐसे वैसे हुआ करता था.. अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग... जबकि ध्यान से देखिये तो वास्तव में आज का दौर ही है रेडियो का स्वर्णिम युग... ऐसा पहले कब हुआ कि हर महीने देश के प्रधानमंत्री आपसे रेडियो से रूबरू होते रहे हों? अब हो रहा है, पिछले 6 साल से... एक तो हर हाथ मे मोबाइल और अधिकांश घरों मे चार पहिया गाड़ियां और हर गाड़ी में कैसेट, सीडी और पेनड्राइव जैसे सुलभ विकल्पों के बावजूद भी सबसे ज्यादा और सिर्फ FM के चैनल्स ही सुने जा रहे हैं। जिस स्वर्णिम काल के रेडियो का जिक्र तथाकथित लोग कर रहे है उस दौर में भी रेडियो उतना नहीं सुना गया जितना आज सुना जाता है। हाँ, यह जरूर है कि आज कंटेंट में विविधता का अभाव भले ही हो सकता है और धड़ाधड़ बढ़ते निजी प्राइवेट FM स्टेशन्स ने कन्टेन्ट्स और क्रिएटिविटी पर बिल्कुल काम नही किया यह भी सच है। पर, उस दौर के लोग भी तो अमीन सयानी के रेडियो सीलोन पर बिनाका गीतमाला, बीबीसी के समाचारों के अलावा ज्यादा से ज्यादा कुछ ग़ज़ल-गीत गायकों या कुछ इक्का दुक्का शहरों तक सीमित स्थानीय कार्यक्रमों के अलावा क्या गिना या बता पाते हैं और यह सब भी 50 से 70 साल के बहुत लंबे समय काल के दौर मे... जबकि, आकाशवाणी तब से लेकर आज अभी भी उसी परम्परा के साथ स्थानीय और खेती-किसानी, ड्रामा, शास्त्रीय संगीत, वार्ता तथा फरमाइशी गीतों को सुनाने सरीखा कार्य करने के साथ साथ स्थानीय जिले की हलचलों के साथ साथ क्षेत्रीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सूचना और समाचारों की पूर्ति करने में पूरी तरह सफल है तथा लोग भी पहले की ही तरह आज भी इन केंद्रों को वैसे ही सुन रहे है। हालांकि, थोड़ी समस्या यह है कि प्राइवेट FM स्टेशन्स के अपनी निरन्तर बढ़ती संख्या के बावजूद उनके आरजेज़ आज भी लगभग एक जैसी प्रस्तुति के दायरे में अपने को बांध रखे हैं, पर फिर भी उन्ही प्राइवेट FM पर अन्नू कपूर, अमित कुमार और नीलेश मिश्रा जैसे गैर पारम्परिक प्रस्तोताओं ने घिसी-पिटी आरजेगिरी से अपनी अलग पहचान बना लेने में कामयाबी पाई..यद्यपि, सुनने पर इन FM स्टेशनो पर अभी भी सब कुछ फिल्मी फिल्मी सा ही महसूस होता है, अन्य विधाओं के कन्टेन्ट्स नदारद हैं, जबकि ये चाहे तो स्थानीय संगीत को प्रमुखता देने, स्थानीय शिक्षा केंद्रों से युवाओं के कार्यक्रम, चिकित्सा सम्बन्धी जानकारी तथा बिना फिल्मी गीतों के स्थानीय महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साथ वार्ता आदि के कार्यक्रम संचालित करके अपने FM को सीरियस रेडियो की तरह हर उम्र और वर्ग के सुनने लायक बना सकते हैं। पर इन सब के बावजूद जैसा कि लोग दावा कर रहे हैं कि रेडियो का स्वर्णिम दौर बीता हुआ कोई और समय या काल था तो उन्हें तब की जनसंख्या की दोगुनी या तीनगुनी आज के 135 करोड़ की आबादी में रेडियो सुनने वालों की बढ़ी संख्या पर ध्यान देना चाहिए... रेडियो की लिसनिंग कभी भी मापी नही जा सकती थी, ऐसे में रेडियो कहाँ कहाँ किस रूप में आज भी अपने बदले रूप में सुना जा रहा है, उसी को पैमाना मान लीजिये तो यह संख्या आज कई माध्यमो से कई गुना हो चुकी है।

इस स्वर्णिम काल को माध्यमो के अतिरिक्त यदि किसी अन्य तरीके से समझना हो तो वह भी सुनिये। आज से लगभग 12 या 13 साल पहले जब मैं एक निजी प्राइवेट FM स्टेशन के विज्ञापन विभाग में नौकरी कर रहा था, तब बहुत से सरकारी या निजी संस्थान, छोटे-बड़े ब्रांड्स, खुदरा एवं थोक व्यापारी, राजनीतिक पार्टियां या उनके नेता, स्कूल कालेज ये सभी अपने किसी भी प्रकार के विज्ञापन बजट या कैम्पेन में रेडियो के लिए किसी भी तरह की कोई प्लांनिग नही करते थे और न ही कोई बजट तय करते थे, पर धीरे धीरे स्थितियां बदलती गईं और आज रेडियो पर विज्ञापन या कैम्पेन को कोई भी विज्ञापनदाता नज़रअंदाज़ नही कर सकता। आप किसी भी रेडियो केंद्र को सुनिये, चाहे वो सरकारी हो या निजी, उन पर हर थोड़ी देर में विज्ञापन ही विज्ञापन मिलेंगे, इतना कि आप ऊब जाएंगे... और इन विज्ञापनों से रेडियो केंद्रों को कितना फायदा मिल रहा है इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइए की लगभग हर बड़े शहर में आज की तारीख में 4-5 निजी FM रेडियो संचालित हो रहे हैं और वह भी "बिडिंग-प्रकिया"के तहत सरकार को लाइसेंस फीस और मासिक किराया देकर.. इन निजी FM रेडियो स्टेशनो द्वारा करोडों के विज्ञापन कमाने का ऐसा दवाब होता है कि भले ही प्रोग्रामिंग के लोग वो हर शहर में नियुक्त करें या न करें, हर शहर में कोई ऑफिस खोलें या न खोलें, पर इसके बावजूद विज्ञापन की पूरी टीम अवश्य नियुक्त कर दी जाती है ताकि विज्ञापन की कमाई की मिसिंग न होने पाए..अब यदि विज्ञापन देने वाले को इन FM रेडियो पर विज्ञापन देने से कोई लाभ नही होता या इन स्टेशनों को कोई सुन नही रह होता तो रिस्पांस के अभाव में वो इन्हें विज्ञापन तो देने से रहे... ऐसे में, पता नही कैसे लोग किस और समय काल को रेडियो डे पर स्वर्णिम युग बता रहे हैं यह तो वही लोग जाने, पर कन्टेन्ट्स और क्रिएटिविटी के इस अभाव के दौर में भी रेडियो का यह कर्मिशियल सक्सेस यह ज़रूर स्पष्ट करता है कि यदि स्वर्णिम काल को मापने का कोई तय पैमाना यदि होता होगा तो उन पैमानो पर रेडियो आज अपने स्वर्णिम दौर में है और इस दौर की चमक अभी और बढ़ती जानी है। अब यह अलग बात है कुछ लोग अपने जीवन के संध्याकाल में जवानी के दिनों को स्वर्णिम युग मान कर रेडियो को भी अपने उम्र के दायरे में बांध कर अपने चश्मे से उसे देखेंगे तो मोतियाबिंद भी इसी उम्र में ज्यादातर होता है, ऐसे लोग अपनी आंखों का पहले इलाज़ करवाये, तब कोई बयानबाज़ी करें... विशिंग यू ऑल ए हैप्पी वर्ल्ड रेडियो डे....




लेखक :अजीत कुमार राय,तकनीशियन,

          आकाशवाणी, गोरखपुर

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