होली
जवाहर सरकार
भारत में हर वर्ष अनेक पर्व और त्यौहार मनाए जाते हैं लेकिन इन सब में एक त्यौहार ऐसा है जिसमें धर्म कर्म सबसे कम और मस्ती सबसे ज्यादा है। यह कमाल का सामाजिक त्यौहार फाल्गुन (फरवरी-मार्च) मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है और आमतौर पर इसका आरंभ एक रात पहले होलिका दहन से होता है। अगले दिन छोटे बड़े सब को, कोई चाहे या ना चाहे, अबीर गुलाल या पानी में घुले रंगों से सराबोर करके, होली का धमाल और खूब खाना-पीना होता है। माननीय पंडित एस एम नटेस शास्त्री ने करीब एक सौ वर्ष पूर्व बड़े भारी मन से लिखा था, ‘इस त्यौहार से जुड़ा कोई खास धार्मिक अनुष्ठान तो नहीं है, लेकिन पागलपन के रिवाजों की कोई कमी नहीं है’।
यह त्यौहार कब और कैसे शुरू हुआ ये जानने के लिए हमें सदियों पीछे जाना होगा, तमाम किस्से-कहानियों और रीति-रिवाजों को खंगालना होगा क्योंकि भारत के प्रमुख धर्म में सटीक इतिहास रखने की परंपरा नहीं रही है। सातवीं सदी की दो कृतियों दण्डिन्के संस्कृत नाटक दशकुमारचरित्और श्री हर्ष की रत्नावलीमें इसका उल्लेख मिलता है। पुराण में भी इसके कुछ प्रसंग आते हैं और मुग़ल काल की चित्रकारी में हमें होली की कई कथाएं मिलती हैं। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी तो 17वीं सदी से ही इससे मुग्ध प्रतीत होती है; 1687 में उसने इसे होउली (Houly) लिखा तो 1698 में इसे हूली (Hoolee), 1798 में इसी शब्द को उसने हुली (Huli) लिखा तो 1809 में यह हो गया होह्-ली (Hoh-lee) और ये सिलसिला जारी रहा।
इससे जुड़ी तमाम पुरा कथाओं और रीति-रिवाज़ों में अन्तर तो बहुत है लेकिन जहां तक इसे मनाने और काल का सवाल है, इस विविधता में भी अजीब ‘एकता’ दिखाई देती है। शायद इसकी वजह सदियों तक ब्राह्णों की जि़द रही। इसके नाम भी अलग-अलग हैं, जैसे बिहार में फगुआ, बंगाल, ओड़ीशा और असम में दोल-जात्रा, तो महाराष्ट्र में शिम्गा। गोआ-कोंकण क्षेत्र में इस वासन्तिक उत्सव का नाम है शिग्मो। कोंकण के दक्षिणी हिस्से में यह उक्कुलीके नाम से प्रचलित है, जबकि मलयालम में कम धूमधाम के साथ मंजालकुली (हल्दीस्नान) कहलाता है। कर्नाटक और तेलंगाना के वासी मानते हैं कि पवित्र अग्नि में राक्षसी होलिका का नहीं अपितु प्रेम के प्रतीक काम-देवता का दहन होता है इसलिए इसे काम-दहनकहा जाता है, लेकिन आंध्र में यह पर्व वसन्त पंचमी का हिस्सा है। पंजाब में घरों में नई पुताई करवाई जाती है और गांव की स्त्रियां सुंदर रंगोलियां बनाती हैं जो चौक-पूरनाकहलाता है, कपड़ों पर रंग-बिरंगी कढ़ाई की जाती है। तमिलनाडु में यह पर्व पांगुनी-उत्तरम्कहलाता है और इस दिन कई हिंदू-पूर्व देवी-देवताओं की विवाह वर्षगांठ मनाई जाती है। शायद इसका उद्देश्य मोटे तौर पर इन सभी देवी-देवताओं को हिंदू पूजा परंपरा से जोड़ना रहा होगा। यहां कोई होलिका दहन नहीं होता क्योंकि यह वसन्त उत्सवम्है। लेकिन अन्य राज्यों की अपेक्षा यहां धार्मिक श्रद्धा अधिक दिखती है।
गुजरात में, होली दो दिनों का त्यौहार है जहां होलिका दहन में कच्चे नारियल और भुट्टे चढ़ाए जाते हैं। रबी की फसल पक चुकी होती है इसलिए नाच-गाने और खाना-पीने की खा़सी धूमधाम रहती है। छाछ की हांडी को लेकर लड़के लड़कियों के बीच दिखावे की छीन-झपट लोगों का खूब मनोरंजन करती है और वसन्त, यौवन और मौज मस्ती का सैलाब उमड़ आता है। असली होली तो मथुरा और वृंदावन की है जिसका सीधा नाता रास रचैया कृष्ण कन्हैया से है, लेकिन यहां भी बरसाने की लट्ठमार होली औरों पर भारी पड़ती है। महिलाएं सच में पुरुषों को लाठियों से पीटती हैं और पुरुष बेचारे इस पिटाई में भी आनन्द लेते हैं। वे महिलाओं को उकसाने के लिए कामुक गीत गाते हैं और बदले में मीठी झिड़कियों के साथ पिटाई खाते हैं। गंगा की धार के साथ आगे बढ़ते जाएं तो कानपुर में होली देशभक्ति से भरपूर गंगा मेला का रूप ले लेती है, लेकिन बनारस में तो कीचड़ कुश्ती खेली जाती है और आगे बढ़ें तो बिहार का फगुआ, मूल रूप से भोजपुरी रंग में रंगा रहता है। उसमें बेबाक़ मस्ती की उमंग में अक्सर रंगों की जगह कीचड़ और मिट्टी ले लेती है। भांग, दूध, इलायची और मेवे डाल कर घोटी गई ठंडाईभी इस हुल्लड़ का एक अहम हिस्सा है। ढोलक की थाप पर नाच की मस्ती दोगुनी हो जाती है। पहाड़ों में कुमाऊं की तरफ जाएं तो सारा नज़ारा बदल जाता है। होलिका की चिता पर यहां चीर बन्धनकहलाती है। लोग होली-धुलण्डी से करीब एक पखवाड़ा पहले ये चीर-बन्धन सजाना शुरू कर देते हैं।
ओडि़शा और बंगाल में दोल-पूर्णिमा यानी झूला उत्सव के दौरान राधा-कृष्ण उत्सव मनाया जाता है। माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों और श्रद्धालुओं के साथ दोल-पूर्णिमा को पुरी से बंगाल भेजा था। हरि भक्ति बिलास और अन्य समकालीन साहित्य में दोल-ओत्शबका उल्लेख मिलता है लेकिन नबद्वीप में यह उत्सव मनाये जाने का न तो चैतन्य की जीवन-गाथा में और न ही वैष्णव पदावलियों में कोई प्रमाण मिलता है। भगिनी निवेदिता ने भी बंगाल की दोल-जात्रा के बारे में एक मार्मिक लेख लिखा था जो उनकी मृत्यु के बाद 1913 में लंदन में प्रकाशित हुआ। इस लेख में दोल-पूर्णिमा को श्री चैतन्य की जयन्ती के रूप में मनाने की बात कही गई थी और इसे ‘’हिन्दुओं से बहुत पहले के समाज का उत्सव’’ बताया गया था।
होली उत्सव का राक्षसी होलिका से क्या संबंध है इसका विस्तार से उल्लेख करना जरूरी है क्योंकि अजय एवं भयंकर असुर हिरण्यकश्यपु के गुणी भक्त पुत्र प्रह्लाद की कथा में मुख्य खलनायिका वही है। असल में, इसी असुर का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने स्वयं नरसिंह का अवतार लेने की चाल चली और उन्हें देव लोक से मृत्यु-लोक आना पड़ा था। होलिका ने ही बालक प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठा कर अग्नि में प्रवेश किया था क्योंकि उसे लगता था कि अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी लेकिन उसका भतीजा अवश्य ही भस्म हो जाएगा। लेकिन प्रभु की लीला देखो - हुआ इसके एकदम विपरीत। उसका अग्नि कवच नाकाम रहा जबकि प्रह्लाद अपनी भक्ति के बल पर सकुशल बच गया। असल में होलिका या धुंढा बच्चों को बड़े शौक से खाती थी और विद्वानों ने उसके विनाश को उन रोगाणुओं के विनाश का प्रतीक माना जो वसन्त के आगमन के साथ पनपने लगते हैं और छोटे बच्चों को बीमार कर देते हैं। एक और कथा, प्रेम के देवता कामदेव के बारे में है (क्युपिड या इरोज़ का भारतीय रूप) जिन्हें भगवान शिव ने जला कर भस्म कर दिया था। यह कथा दृष्टान्तिक भी हो सकती है और मस्ती भरे इस उत्सव में जो उन्मुक्तता और स्वछन्दता दिखाई देती है उसे इस कथा रूपी ठंडे पानी की धार से ठंडा करने की कोशिश की जाती है।
इस अवसर पर वर्जनारहित कामुकता वाले गीत गाने की परंपरा का उल्लेख तो मध्य काल से लेकर यूरोपीय यात्रियों तक बहुतों ने किया है। हिन्दुओं ने कभी इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा और कई ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। एक सौ साल पहले एम एम अंडरहिल ने होली के अवसर पर बोली जाने वाली वर्जनाहीन और असंयत भाषा का उल्लेख किया है। 1880 के दशक में विलियम क्रुक ने भी इसका जिक्र किया था। वास्तव में, प्राचीन स्मृतियोंमें चैतन्य से सदियों पूर्व इस त्यौहार का उल्लेख है, और उनमें कहा गया है कि तथाकथित निम्न वर्ग के लोग गाली-गलौज करते थे। इससे एक बार फिर पुष्टि हो जाती है कि होली में वर्जनाहीन कामुकता का पुट होता है और इसकी शुरूआत आर्यों के आने से पहले हो गई थी। अंडरहिल ने लिखा है, ‘’निम्न वर्ग के पुरुषों और लड़कों का नाच इस त्यौहार की पहचान है’’, लेकिन उन्होंने ये भी साफतौर पर लिखा है कि होली में अन्य जातियों और वर्गों के लोग शामिल होते थे। उन्होंने एक प्राचीन विद्वान के हवाले से कहा है, ‘’होली के दूसरे दिन निम्न वर्ग के लोगों का स्पर्श और उसके बाद स्नान करने का अर्थ, हर तरह की बीमारी का अंत था’’। क्या इसका उद्देश्य शरीर में बीमारी से लड़ने की ताकत पैदा करना था ?
होली का उत्सव केवल भारत और नेपाल तक सीमित नहीं है। जहां-जहां भारतीय गए वे इसे भी साथ ले गए। सूरीनाम और त्रिनिदाद-टोबैगो में आज भी फगवामनाया जाता है। गयाना में तो इस दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है और हर नस्ल, रंग और धर्म के लोग इसमें शामिल होते हैं। सदियों पहले भारत छोड़ कर दूर देश फिजी और मॉरिशस जा बसे भारतीयों के लिए तो आज भी होली के अवसर पर होली के गीत गाना यानि फाग गाइनऔर ढोलक की थाप पर मस्ती में नाचना जीवन का नियम है।
सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि रंगों के इस भारतीय त्यौहार का रंग यूरोप और अमरीका के लोगों पर भी छाने लगा है। वहां इस अवसर पर कई सामुदायिक उत्सव तो मनाए ही जाते हैं, व्यवसायिक आयोजन भी होते हैं। इनमें शामिल हज़ारों श्वेत पुरुष और महिलाएं होली खेलने में भारतीयों को भी पीछे छोड़ देते हैं। अमरीका के सीबीएस और एनबीएस जैसे टेलिविज़न चैनलों के रियलिटी शोज़ में होली के रंग बिखर चुके हैं और विदेशी संगीत और बैंड्स में भी होली की मौज-मस्ती सुनाई पड़ती है। दक्षिण अफ्रीका के गुडलक, अमरीका के केशाऔर रेगीना स्पैक्टर के फाइडैलिटीमें होली के उन्माद को महसूस किया जा सकता है। होली के रंगों की बौछार, उल्लास, मस्ती भरे गीत और नाच-गाने आज भी लोगों को लुभाते हैं। भारत से विदेश गई सांस्कृतिक विरासत की लंबी सूची में एक और नाम, होली का, जुड़ चुका है।