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रचना - अवधी लोक जीवन में फाग की धूम !

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इन दिनों समूचे अवध क्षेत्र के जन जीवन में फाग का रस - राग अपने उन्नत चरण पर है ।ज्यों- ज्यों होली निकट आ रही है ,फाग के विभिन्न रूप होरी, चौपाल, डेढ़ताल, ढाई ताल, उलारा, चहली, लेज, धमार आदि पूरे अवध में अपने रंग बिखेरते नज़र आ रहे हैं ।कृष्ण और राधामय मथुरा के तो क्या कहने !लखनऊ की इसे खुशनसीबी कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यहां उत्तराखंड में खेली जाने वाली होली का भी भरपूर आनन्द उठाया जा सकता है क्योंकि प्रदेश विभाजन के पूर्व से ही वहाँ के लोगों की बहुत अधिक संख्या के लोगों ने यहीं अपना स्थायी निवास बना लिया है ।विभिन्न छंदों में गाए जाने वाले अवधी के फाग समूह गान के रूप में फाग मंडलियों द्वारा गाये जाते हैं।स्त्री प्रधान गीत होरी प्रायः श्रृंगार परक, भक्ति परक और लोकहित की भावना से ओतप्रोत होते हैं ।

गड़िगे बसन्त के ढाह बिना होली तापे न जावै...वहीं धमार को पुरुष प्रधान गीत माना गया है ।लय ताल प्रधान धमार गायन ध्रुपद गायन की भांति दून, तिगुन अथवा चौगुन, आड़, कुआड़, अनागत आदि जैसी लयकारियों के चमत्कार के साथ गाया जाता है ।
मन बसा मोर वृन्दावन मां....
इसी तरह गोरी तुम्हरे धयन तलवारी, छैल जिया मारी(चौताल), यह नर तन पायौ, वृथा ही गंवायौ, सफल न बनायौ, प्रभुहिं नहिं ध्यायो(ढाई ताल), जियरा तौ लइ गै तमोलिन छोकड़िया बैरिन चलाय रही हो जदुवा(उलारा) तथा डेढ़ ताल,लेज चहली, कबीरा जोगीरा आदि रचनाएँ लोकवाद्य ढोलक, मंजीरा और झांझ करताल आदि के साथ उल्लासमय वातावरण अवधी सरज़मीं की थाती हैं ।आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के लखनऊ सहित अनेक केन्द्रों ने होली के अवसर पर अपने कार्यक्रमों को प्रसारित करना शुरू कर दिया है ।इस ब्लॉग के माध्यम से प्रसार भारती परिवार अपने सभी पाठकों को होली की सतरंगी शुभकामनाएं दे रहा है ।
ब्लॉग रिपोर्ट-प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी, लखनऊ। मोबाइल नंबर 9839229128

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