बचपन जब कंटीले रास्तों से गुजर रहा था, तब से रेडियो हमारे साथ-साथ चल रहा था, या यूं कहें कि हम रेडियो के साथ बड़े हो रहे थे और रेडियो हमारे जीवन का सुर बन रहा था।बचपन का रेडियो एक जीवंत व्यक्ति की तरह घर का मुख्य सदस्य था। हम मुस्कुराते या मुंह बिसूर कर रोते, तो लगता कमरे में मौजूद रेडियो हमें देख रहा है और हम रोते हुए टेढ़ा हुआ मुंह झट से बंद कर लेते और गालों पर ठहरे आंसू की बूंदों को आईने के सामने जाकर झटपट पोंछ लेते। इतनी ज्यादा थी रेडियो की अहमियत हमारी जिंदगी में। असम के छोटे-से कस्बे धुबरी में बीता हमारा बचपन। कई कमरों के उस घर में एक कमरा ‘रेडियो वाले कमरे’ के नाम से जाना जाता था। उस कमरे में बड़ी-सी टेबल पर बड़ा-सा मरफी रेडियो सेट रखा था। उसी रेडियो के पर्दे से छन कर जब ये उद्घोषणा सुनाई देती....’यह श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन का विदेश विभाग है’…….तो हम रेडियो पर पहनाए गए कवर के पीछे अपनी पूरी मुंडी घुसा कर देखते कि यह कौन लोग हैं जो बोल रहे हैं पर दिखाई नहीं दे रहे।.....बहुत लंबे समय तक यह सवाल पीछा करता रहा। इस सवाल के पीछे और सवाल......फिर और सवाल.......मतलब सवालों की नदी में हम लंबे समय तक ग़ोते लगाते रहे। रेडियो के साथ ही हमारे रास्ते बदले और हम पहुंचे इलाहाबाद।
मेरे मन में आकाशवाणी इलाहाबाद से जुड़ी बड़ी रेशमी और मखमली स्मृतियां है। इलाहाबाद आकाशवाणी से ‘उदयाचल’ कार्यक्रम में सहभागी के रूप में मेरी आवाज़ पहली बार गूंजी थी....।उसके बाद तो मैं आकाशवाणी परिवार की सदस्य बन गई। वहां के ‘युववाणी’ कार्यक्रम से जुड़ना, युववाणी के लिए वार्ताएं लिखना, ‘गीतों भरी कहानी’ लिखना और पेश करना, परिचर्चा में भाग लेना....यह सब हमारे लिए किसी बड़े आयोजन में हिस्सा लेने से कम नहीं था। किसी जादुई संसार में सैर करने से कम नहीं था। तब ‘युववाणी’ में एक स्तंभ होता था, ‘रजनीगंधा’…..जिसका ढांचा विविध भारती के छायागीत की तरह था, लेकिन वह सजीव करना पड़ता था, जबकि विविध भारती का छायागीत रिकॉर्डेड होता है। उस कार्यक्रम से मिले पहले चेक ने अगले दिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कैंपस की ‘सैर’ की। मेरी सारी सहेलियों ने अपनी हथेलियों पर चेक को फूलों की तरह बिठाया और उसे छू कर देखा। वह हमारे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। इलाहाबाद आकाशवाणी में किसान भाइयों के लिए कार्यक्रम करते थे श्री कैलाश गौतम। पहली बार उनसे मुलाकात आज भी ज़ेहन में ताज़ा है। उस रोज़ घर जाकर उनकी ढ़ेर सारी कविताएं पढ़ी थी। कुछ अपनी डायरी में नोट भी कीं। इतनी बेहतरीन कविताएं लिखने वाले कवि स्वभाव से एकदम सहज-सरल इंसान थे। आज भी जब उनकी कविताएं पढ़ती हूं तो उनका हंसमुख चेहरा, उनकी बातें, उनका मिलनसार व्यक्तित्व आंखों के सामने कौंध जाता है।
किशोरवय के उस पथरीले सफर में अचानक एक नया मोड़ आया और मेरी राहें इलाहाबाद की सड़कों से मुड़ कर महानगर यानी मुंबई के हाईवे से जुड़ गयीं। कई बार बड़ी विकलता से इलाहाबाद शहर वापस भी लौटे, लेकिन मुकद्दर ने विविध भारती के साथ नाता जोड़ दिया फिर तो मन जैसे सपनों के आकाश में उड़ने वाला पंछी बन गया। विविध भारती......रेडियो के मेरे जीवन की तिलिस्मी दुनिया। यह कभी सोचा नहीं था एक दिन रेडियो ही मेरे जीवन का मकसद बन इस कदर घुल मिल जाएगा कि वह मेरे अस्तित्व की पहचान बनेगा।