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आकाशवाणी इलाहाबाद:सीधे महाकुंभ से अमावस की स्याह रात का महाउत्सव ।

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"जीवन के प्रति अपने नज़रिए,रीति रिवाज़ों,परम्पराओं और मान्यताओं के कारण हम भारतीय पूरे संसार में यूं ही नहीं अनोखे समझे जाते हैं,अद्भुत समझे जाते हैं। गज़ब का जीवट और धैर्य होता है हम में। हम कई बार अतिवाद के ऊपरी छोर पर पहुँच कर पागलपन की चौहद्दी लांघते से लगते हैं। जीवन के सुख दुःख को इतनी समदृष्टि से देखते हैं कि दुखों का भी खुशियों की तरह उत्सव मनाते हैं। पूर्णिमा की उजली रात की तरह अमावस्या की स्याह रात का भी महा उत्सव रचते हैं।इन दिनों प्रयाग में कुम्भ चल रहा है और 4 फरवरी को मौनी अमावस्या थी। इस बार ये सोमवार को थी यानी सोमवती अमावस्या। ये संयोग काफी दिनों में पड़ता है और सरकार,मीडिया और निसंदेह आम जनता भी इसे महा उत्सव की तरह मनाने को आतुर थी और मनाया भी।लेकिन किस तरह !

03 फरवरी 02 बजे :आकाशवाणी को मकर संक्रांति के बाद मौनी अमावस्या स्नान पर्व और शाही स्नान का सजीव आँखों देखा हाल प्रसारित करना था। कमेंट्री से जुड़े लोग पहले ही कुंभ क्षेत्र पहुंच चुके हैं। लगभग डेढ़ बजे हम नौ लोग जिसमें कमेंटेटर और साथी अधिकारी लोग थे,तीन गाड़ियों से मेला क्षेत्र के लिए रवाना होते हैं।दो गाड़ियों पर पास है,एक पर नहीं। हम लोग आशंकित हैं पता नही गाड़ी कहां रोक दी जाय और फिर अपने मेला क्षेत्र स्थित कैम्प तक पहुंचने के लिए कितना पैदल चलना पड़े। आशंका थोड़ी दूर चलते ही सच साबित होती है। हिन्दू होस्टल चौराहे पर बैरिकेड लगे हैं। गाड़ियों को यहां रोका जा रहा है। संगम की यहां से दूरी 6 किलोमीटर से भी ज़्यादा है।यहां से लोगों की पैदल यात्रा शुरू होती है। अब बड़ी संख्या में लोग पैदल जाते दिखाई दिखाई देने लगे हैं। लोग पहले कोशिश करते हैं कि गाड़ियां आगे जा सकें लेकिन असफल होने पर उतर कर पैदल चल पड़ते हैं। एक हल्की सी निराशा की लकीरें उनके चेहरों पर उभरती हैं,पर गंगा दर्शन और उसमें डुबकी लगाने के उत्साह में वे कहीं छिप सी जाती हैं। हमें मीडिया पासधारी होने का लाभ मिलता है। हमारी गाड़ियाँ आगे बढ़ती हैं। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते जाते हैं, पैदल स्नानार्थियों की संख्या भी बढ़ती जाती है। सबमें बस एक ही आतुरता परिलक्षित होती है संगम पहुंचने की। बालसन चौराहे पर फिर बेरिकेडिंग है। हम पुलिस से बहस करने से बचने के लिए अल्लापुर का रास्ता पकड़ लेते हैं और बाघम्बरी गद्दी होते हुए दारागंज जाने वाली सड़क पर परेड ग्राउंड प्रवेशद्वार पर पहुंचते हैं। आश्चर्यजनक रूप से यहां पर तैनात पुलिसकर्मी मीडिया पास दिखाने पर सहजता से जाने देते हैं और हम लोग काली सड़क क्रॉसिंग पहुंचते हैं। काली सड़क पूरी तरह से संगम जाने वाले स्नानर्थियों से भरी चल रही है। सड़क पर तिल रखने की जगह नहीं है। हमें इन्हें चीर कर आगे बढ़ना है,लेकिन ये संभव नहीं हो पा रहा है। लोगों का अनवरत प्रवाह है। उस प्रवाह में एक लय है। सब एक गति से आगे बढ़ रहे हैं। ऐसा लगता है मानो कोई नदी बह रही हो जिसमें पानी की जगह मानव प्रवाहित हो रहे हैं। उस प्रवाह का गंतव्य संगम स्थल की है जिसमें वे खुद को विलीन कर देना चाहते हैं। हम गाड़ी से उतर कर उस पार खड़े सिपाहियों के पास जाते हैं। उनसे उस पार लगी बेरिकेडिंग हटा कर जाने देने का आग्रह करते हैं। वे सहजता से मान जाते हैं और बड़ी मशक्कत के बाद उस मानव प्रवाह को रोकते हैं और हम आगे बढ़ते हैं। इसके बाद दो और जगह बेरिकेडिंग हैं,किसी तरह हम उन्हें पार करते हैं। अंततः बांध के नीचे त्रिवेणी सड़क वाली टी पर पहुंचते हैं जहां रास्ता पूरी तरह बंद है। हम लोग गाड़ियां वापस भेज देते हैं। यहां से कैम्प पास ही है। 
03 फरवरी रात्रि 08 बजे:रात्रि के आठ बजे हैं। हम 5 साथी अक्षयवट मार्ग स्थित अपने टावर को देखने के बहाने संगम तक घूमने निकलते हैं। ये यमुना का उत्तरी किनारा है। किले से लेकर संगम तक यमुना के उत्तरी किनारे पर लगभग 50 मीटर चौड़ाई में पुआल बिछी है।उस पर कहीं भी तिल रखने की जगह नहीं हैं।गाम गिराम के लोग समूहों में यहां उपस्थित हैं। अधिसंख्य क्या लगभग सभी समाजार्थिक दृष्टि से निम्न और निम्न मध्यम वर्ग से हैं। तमाम लोग बैठे बतिया रहे हैं ,बहुत से कंबल रजाई ताने सो रहे हैं।जगह जगह चूल्हे सुलगे हैं। खाना बनाने का उपक्रम हो रहा है। लिट्टी चोखा,दाल भात,खिचड़ी,चूड़ा,कुछ जगह रोटियां भी। जिनके पास बनाने का जुगाड़ नही है वे चना चबैना से काम चला रहे हैं। तो बहुत से लोग घर से ही बनवाकर लाये हैं। ये हाल सिर्फ यमुना किनारे का ही नहीं है बल्कि सेक्टर 3 और 4 में हर उस जगह का है जहां हुक्मरानों के कारिंदों ने लोगों को ऐसा करने की अनुमति दी है बल्कि यूं कहें कि ऐसा करने से रोका नहीं है।ठंड अपने शबाब पर है। गहराती जाती अमावस की रात में हल्की हल्की सी हवा बहने लगी है जो ठंड से लिपट कर उसकी उपस्थिति के अहसास को तीव्र से तीव्रतर कर रही है। सर के ऊपर केवल आसमान का छावा है और नीचे एक पतली पॉलीथिन का बिछौना या चादर और पुआल मिलकर लोगों को धरती से विलगाने की असफल कोशिश कर रहे हैं। रेत साज़िशन पाला बदल कर ठंड के साथ हो लिया है और ठंड की मारक क्षमता को चाकू की धार की माफिक पैना कर रहा है,और तीक्ष्ण बना रहा है। पर क्या ही कमाल है जो उन श्रद्दालुओं पर इस बरसती ठंड और सुविधाओं की शून्य उपस्थिति का जरा भी असर हो रहा हो। वे असीम धैर्य के साथ उस दीर्घ प्रतीक्षित शुभ मुहूर्त का इंतज़ार कर रहे हैं जब वे संगम के पवित्र जल में डुबकी लगाकर अपने जन्म जन्मांतरों के पाप काट देंगे और अपने इहलोक के साथ परलोक को भी साध लेंगे। इस कड़कड़ाती ठंड और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद लोगों के चेहरों पर असंतोष या रोष के भाव की उपस्थिति शून्य है। अगर कुछ है तो उनके चेहरों पर आतुरता है और संतोष का भाव तो छलक छलक जा रहा है। सब खुश हैं। उस कड़ाके की ठंडी रात की कठिनतम परिस्थितियां भी अपने तमाम प्रयासों के बावजूद उनकी संतुष्टि के स्थायी भाव को विचलित नही कर पा रही हैं । ठीक उनके अपने जीवन की तरह। वे लगातार अभावों,कष्टों के बावजूद बेहतर दिनों की आस नही छोड़ते। अनवरत कर्म में लीन रहते हैं। इस आस में कि बस सुख उनके जीवन में आने वाला है। सुख उनके जीवन से अनुपस्थित हैं तो क्या हुआ, वे साल दर साल दुखों का ही उत्सव मना लेते हैं। आज भी ठीक वैसे ही कठिनतम परिस्थितयों के बीच अमावस की स्याह रात का भी पूर्णिमा की उजली रात की तरह उत्सव मनाने की अदमनीय इच्छा के वशीभूत हैं।
हम लोग वापस कैम्प लौट आये हैं।3 फरवरी रात्रि 11बजकर 19 मिनट से अमावस शुरू हो गई है। ऐसी उद्घोषणाएं ध्वनि विस्तारक यंत्रो के माध्यम से लगातार प्रसारित की जा रही हैं। हम कैम्प में लेटे इनको सुन रहे हैं। नींद विचारों की भीड़ में गुम हो गई है। अर्धरात्रि के बाद भीड़ का दबाव शायद बढ़ गया है। ऐसा अनुमान हम लोग लेटे लेटे लगा रहे हैं। क्योंकि अब लोगों से अपील की जा रही है कि वे स्नान करके अपने गंतव्यों की और प्रस्थान करें। ये अपील स्वयं डीआईजी और मेलाधिकारी कर रहे हैं। उनके स्वर में व्यग्रता की उपस्थिति महसूस होती है। 

04 फरवरी प्रातः 04 बजे:प्रातः चार बजे यमुना पट्टी सड़क पर स्थित हम अपने कैम्प के गेट पर खड़े हैं। ये संगम वापसी मार्ग है।स्नानार्थियों का दबाव बढ़ रहा है। काली मार्ग और यमुना पट्टी क्रॉसिंग पर आने वाले स्नानार्थियों को रोकने के लिए लगे बैरिकेड हटा दिए गए हैं। बहुत से लोगों को जो संगम क्षेत्र में प्रवेश कर गए हैं उन्हें अलग अलग स्थानों पर डाइवर्ट किया जा रहा है।जमुना पट्टी सीधे किला घाट और यमुना किनारे जाती है। लोग वहीं नहाते हैं। संगम पर थोड़ा दबाव काम हो जाता है। मुख्य संगम स्थल वैसे भी कहाँ आम आदमियों के लिए उपलब्ध है। वो अखाड़ों के शाही स्नान के लिए आरक्षित है। इस समय तक यमुना पट्टी पर भी पाँव रखने की जगह नहीं बची है। एक तरफ से लोग संगम जा रहे हैं दूसरी और से वापस जा रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है दो रेलगाड़ियां समानांतर पटरियों पर विपरीत दिशा में जा रही हों। उफ्फ ये क्या !एक अधेड़ दम्पत्ति भीगे कपड़ों में चले आ रहे हैं। वे नहाकर बाहर आए तो उनके वस्त्र गायब थे। प्रातः चार बजे 4 /5 डिग्री तापमान में गीले अधो वस्त्र और धोती ब्लाउज में वे काँप रहे हैं। पर क्या ही कमाल है उनके चहरे पर अफसोस की शिकन नहीं है। वे दयनीय नहीं लग रहे हैं। संगम में स्नान करने से आत्मा की संतृप्ति के भाव उनके चहरे पर इसने प्रबल हैं कि उनके शारीरिक कष्ट का आभास नहीं होता है। वे एसएसपी ऑफिस का पता पूछते हैं और पता पाकर तेज कदमों से आगे बढ़ जाते हैं। पर हमारी देह काँप उठती है।

04 फरवरी प्रातः 05. 30 बजे :सजीव कमेंटरी के चार स्थलों में से एक काली मार्ग बाँध स्थित संकट मोचन हनुमान मंदिर है। ये कैम्प के सबसे निकट है। यहां पहुँचना सबसे आसान है। इसीलिए हम थोड़ी देर से लगभग साढ़े पांच बजे वहां के लिए निकलते हैं। पांच मिनट बाद हम काली सड़क और जमुना पट्टी के क्रासिंग पर खड़े हैं। भीड़ को वहां रोक दिया है। शायद संगम पर अधिक भीड़ हो गयी है। सामने हमारा गंतव्य दिखाई दे रहा है। लेकिन हमें जाने नहीं दिया जा रहा है। हम चिंतित होते हैं। किसी तरह से सुरक्षा कर्मियों को कन्विंस करते हैं। हमें किनारे से लगे बेरिकेडिंग को लांघ कर जाने को कहा जाता है। किसी तरह से हम उसे पारकर अपने गंतव्य पर पहुंचते हैं। लेकिन इस बीच भीड़ इतनी अधिक हो चुकी है कि उसको संभाल पाना असंभव होता जा रहा है। पीछे से लगातार लोग आ रहे हैं और वहां पर रोक दिया गया है। अब धक्का मुक्की के हालात हो गए हैं। जैसे पानी को रोकना असंभव होता है। वो अपना रास्ता ढूंढ ही लेता है। ठीक वैसे ही भीड़ को रोकना मुश्किल है। भीड़ ने अब अपना रास्ता ढूंढ लिया है। 
उसने साइड में लगी बेरिकेडिंग तोड़ दी है। लोग उससे हा हा कार करते हुए इस तरह से जा रहे हैं जैसे पानी कोई बांध तोड़ कर हरहराकर बह निकलता है। सुरक्षाकर्मी अपने स्थान पर खड़े असहाय से देख रहे हैं और हम मंदिर की छत से। हम सिहर उठते हैं। पर भीड़ के हिस्सा बने बच्चों,युवाओं,महिलाओं,वृद्धों किसी के भी चहरे पर 'यहां आना गलत हुआ'जैसा कोई भाव नहीं है,कोई शिकन उनके माथे पर नहीं है। अजीब सा पागलपन उनके सिर पर सवार है,एक आतुरता चहरे पर पसरी है। 

04 फरवरी प्रातः 10 बजे :

प्रातः साढ़े पांच बजे से दस बजे तक मंदिर की छत से,जहां से हम सजीव आँखों देखा हाल प्रसारित कर रहे थे,संगम की ओर उमड़ते जन सैलाब को देख रहे थे। शहर में दक्षिण और पच्छिम दिशाओं से आने वाले यात्रियों के लिए परेड क्षेत्र से होकर आने वाला काली मार्ग संगम क्षेत्र में प्रवेश का मुख्य मार्ग है तो दूसरी और उत्तर से शहर में प्रवेश करने वाले यात्रियों के लिए दारागंज से होकर बाँध के नीचे वाला समानांतर मार्ग है जो बाँध के ठीक नीचे काली सड़क से मिलता है। हम इसे मंदिर से साफ़ साफ़ देख पा रहे हैं। दोनों तरफ से अनवरत जन प्रवाह आ रहा है। जो हमारे सामने मिलकर जनसैलाब का रूप धारण कर रहा है। चारों तरफ नरमुंड ही नरमुंड चमक रहे हैं। ये बिलकुल गंगा यमुना के संगम सा दृश्य प्रस्तुत करता सा प्रतीत होता है। उत्तर दिशा से दारागंज से आता जनप्रवाह मानो गंगा हो जिसमें दक्षिण दिशा से परेड होकर काली मार्ग से आता यमुना जैसा अपेक्षाकृत बड़ा जनप्रवाह बाँध के नीचे दारागंज से आने वाले जनप्रवाह में मिलकर एक विशाल जनप्रवाह का निर्माण करता है। दस बजे हमारी कमेंट्री ख़त्म होती है। अपना सामान समेट कर हम भी उस जन प्रवाह का हिस्सा बन जाते हैं। यूँ तो काली मार्ग मुख्यतः संगम जाने का मार्ग है लेकिन हम सुबह से ही देख रहे थे कि इसी से बहुत से वापस भी जा रहे हैं। आने जाने वालों ने बड़ी ही ईमानदारी से आधा आधा मार्ग बाँट लिया है। हम संगम से आने वाले जनप्रवाह की विपरीत दिशा से जाने का प्रयास करते हैं क्यूँकि हमारा कैम्प मंदिर से संगम की और पड़ता है। बहाव के विरुद्ध तैरना हमेशा कठिन और कष्टप्रद होता है। यहां इसे हमने यथार्थ में घटित होते महसूसा। हम दो लोग भीड़ द्वारा संगम जाने वाले जनप्रवाह में धकिया दिए गए जबकि हमारे पांच साथी साइड के बेरिकेड को पार करने की फिराक में हैं। इस प्रयास में हमारे वरिष्ठ कमेंटेटर काशी विद्यापीठ के पत्रकारिता विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो राम मोहन पाठक बेहोश होते होते बचे। उनकी खराब होती हालत देखकर सुरक्षाकर्मियों ने आनन फानन में उन्हें साइड बेरिकेडिंग से उस तरफ कर दिया। उसी के साथ बाकी चार लोग भी उस तरफ कूद गए और अपनी जान बचाई। उधर हम दो लोग भीड़ में बिना किसीअपनी ऊर्जा खर्च किये आगे की और धकेले जा रहे हैं। बार बार भगदड़ के आसार बन रहे हैं। उस धक्का मुक्की में छूटे जूते चप्पल उस भयावहता के सबसे मुखर बयान लग रहे हैं। हमारे मुख भय से पीले हो गए हैं पर लोग हैं कि इस भयावह स्थिति में संगम में डुबकी लगाने की आतुरता से गीले हो रहे हैं। एक अजीबअधीरता से सबके चेहरे लाल हैं। 

मुझे सिर्फ एक ही अहसास होता है कि कुम्भ मेला भारतीयों की धार्मिक आस्था और विश्वास का,उनके हर्ष, उल्लास,उनकी सामूहिकता,विश्व बंधुत्व की भावना का शाहाकार ही नहीं है बल्कि उनकी अतिवादिता का,जो पागलपन की सीमा को छू छू जाती है का भी उदाहरण है। ये एक ऐसा बयान है जो उस भारतीय मानसिकता को निदर्शित करता है जिसमें वे दुःख और अभावों के इस कदर आदी हो जाते हैं कि सुख के अभाव में दुखों का भी उत्सव गान करते हैं और पूर्णिमा की उजली रात की तरह अमावस की स्याह रात का भी उत्सव राग बुनते हैं।"

स्त्रोत-श्री दीपेंद्र सिवाच के फेसबुक वाल से।
द्वारा योगदान :-प्रफुल्ल कुमार त्रिपाठी, लखनऊ।

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