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RN Meena Haldhar,Announcer, Akashvani Kota distributes sweaters to needy children at his village

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अपने गाँव के ज़रूरत मंद स्कूली बच्चों को तनख्वाह से बांटे स्वेटर

राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय तूमड़ा ,तह छीपा बड़ौद जिला बारां, राजस्थान । ये मेरे गाँव का स्कूल है । जब हम गाँव में पढ़ते थे । तब गाँव में स्कूल भवन नहीं था , मैं जब पहली कक्षा में पढ़ता था ,तब दाज्जी परताबा जी ब्राह्मण की कच्ची नाट(कवेलू के ढकान वाला चबूतरा) में स्कूल लगता था ।इससे पहले पटेलों के नोहरे के चबूतरे पर कक्षाएं लगती थीं। उसके बाद गाँव के मंदिर के पक्के बरामदे में कक्षाएं लगने लगीं । गाँव में मेरी पढ़ाई कक्षा तीन तक इन्ही चबूतरों और मंदिर के बरामदे में पूरी हुई ,चौथी कक्षा में हम नज़दीक के गाँव गोरधनपुरा में पढने चले गए । इसके बाद सन 1980 -81 में हमारे गाँव में स्कूल के दो पक्के कमरों की स्वीकृति हुई तो पूरे गाँव में ख़ुशी की लहर दौड़ गई थी । गाँव वालों ने इसके निर्माण में पूरे उत्साह पूर्वक घर घर से श्रमदान किया । कोई बेलगाडी से बोल्डर लाया ,किसी ने चिनगारी डलवाई तो कोई रेती लाया । हम बच्चे लोगों ने वानर सेना की तरह ,नीवें खोदने से लेकर रेत-चूना मिलाना,नींव में पत्थर डालना आदि सब काम किया । उस रेत-चूने के मसाले (मिश्रण)की गंध का स्मरण करके मैं आज भी रोमांचित हो जाता हूँ । धीरे धीरे स्कूल की दीवारें नींव के बाहर उठनी शुरू हुई तो हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता था । हम उँगलियों से हर दिन दीवारों का नाप लेते , सुबह -शाम तराई करते । हमारे गाँव में मंदिर के बाद ,हमारी आँखों के सामने बनने वाला यह दूसरा पक्का भवन था।इससे पहले पटेल जी की मेड़ी और नोहरा था जो काफ़ी पहले बना होगा ,हमने बचपन से ही इन्हें काफ़ी ज़र्ज़र हालत में ही देखा । बहरहाल,गाँव के विद्यालय को बनता हुआ देखकर जितना आनंद आता था सच कहूँ तो उतना आनंद कोटा शहर में अपना घर बनता हुआ देखकर भी नहीं आया ।

--पिछले दिनों अपने गाँव के इस विद्यालय के ज़रूरत मंद बच्चों को अपनी हैसियत के अनुसार स्वेटर बांटने का मन हुआ ,मैं कोटा से कुछ स्वेटर लेकर बिना पूर्व सूचना के गाँव के स्कूल में पहुंचा । यह बच्चों के लिए अप्रत्याशित और अकल्पनीय घटना थी,सामान्यत: ये सब शहरों और शहर के आस-पास के गाँवों में तो होता रहता है,पर कोटा से 150 किमी दूर कोई भी संस्था या बड़े लोग नहीं जाते । पिताजी के हाथों से स्वेटर पाकर बच्चे बहुत खुश हो रहे थे । उनकी ख़ुशी इतनी सच्ची थी ,जिसे अनुभव करके लगा कि मैंने जीवन में पहली बार अपने और अपने परिवार के अलावा दूसरों के लिए भी कुछ किया । 
मैं न तो कोई बड़ा व्यापारी हूँ,न बहुत बड़ा अधिकारी ,न नेता और न ही कोई स्वयं सेवी संस्था ,एक मामूली सा सरकारी मुलाजिम हूँ । जो किया ,जितना किया स्वेच्छा से किया ,अंत:प्रेरणा और अपनी तनख्वाह से किया ।--पर फिर भी एक हल्की सी कसक रह गई ,--कुछ बच्चे छूट गए ,सबको स्वेटर नहीं दे पाया ,आखिर अल्प वेतन भोगी कर्म चारी जो ठहरा, चलिए कोई बात नहीं, अगले साल देखते हैं ।


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