जैसे किसी बुनकर का करघा और कुम्हार का चाक कभी खाली नहीं रहता, कवि का करघा और चाक भी निरंतर चलता रहता है। कबीर ने कहा था, झीनी झीनी बीनी चदरिया। जाति के बुनकर थे तो करघे पर चादर बुनते थे और मन में कविताएं। मसि कागद छुए बिना कबीर का न तो कभी चादर बुनने वाला करघा थका न कविता बुनने रचने वाला मन। मैं सोचता हूँ कवियों की प्रजाति भी जैसे किसी बुनकर की प्रजाति है जो अनवरत अपने मन के करघे पर कविताएं बुन रही है। लगभग एक दर्जन कविता संग्रहों के साथ सतत कवितारत लीलाधर मंडलोई की रचनात्मकता के बहुतेरे आयाम हैं। एक तरफ वे कवि हैं, गद्यकार हैं, आलोचक, विवेचक हैं, संपादक हैं तो दूसरी तरफ प्रसारण की दुनिया से जुड़ने के कारण वे मीडिया के मिजाज के सघन अध्येवता भी हैं। वृत्त चित्रों के निर्माण, निर्देशन एवं पटकथा लेखन में विशेज्ञता के कारण उनकी कविताओं में भी ऐसे चाक्षुष संयोजन दीख पड़ते हैं जैसे कोई कवि कैमरे की आंख से मार्मिक शाट्स ले रहा हो। मंडलोई यही करते हैं। उनकी कविता का करघा कभी खाली नहीं रहता। उनके भीतर कुछ रचते रहने की उधेड़बुन लगातार चलती रहती है।
पढे-लिखे और सुसाक्षर समाज की चीज समझी जाने वाली कविता की यथार्थवादी ताकत जितनी मजबूत हुई है,उसकी भीतरी संवेदना उत्तरोत्तर क्षीण हुई है। इसीलिए कविताओं के अंबार में मनुष्य की संवेदना को छू लेने वाली कविता आज भी विरल ही लिखी जा रही है, जिसके चुम्बकीय आकर्षण से पाठक-श्रोता खिंचे-बिंधे चले आते हों। लीलाधर मंडलोई ने गए कुछ वर्षों में ऐसे प्रयोग किए हैं, खास तौर पर अपने जीवनानुभवों को भाषा के अनुभवों में बदलने के स्तर पर, जिन्हें पढ़ते हुए लगता है, कहीं न कहीं हर खासो-आम की संवेदना के लिए उनकी कविता में पर्याप्त जगह है। जहाँ लंबी कहानी, लंबी कविताओं का फैशन फिर चलन में आ रहा हो, यथार्थ की जटिलता के नाम फर कथ्य और शिल्प की बारीकियों और एक खास अंदाजेबयाँ में कविता को रचने बुनने की कवायद चल रही हो, लीलाधर मंडलोई ने हिंदी और हिंदुस्तानी जबान के परस्पर रसायन से कविता की एक ऐसी किस्म तैयार की है जो पाठकों में कविता की सुरुचि जगाने में तो सफल रही ही है, अकादेमिक हल्के में भी जिसने पर्याप्त समर्थन हासिल किया है।
मंडलोई की कविताओं की इबारत धीरे धीरे राजनीतिक हो रही है। कवि जीवन और समय में समाते विपर्यय बोध को पहचानता है। वह जैसे अपने कार्यभार के लिए हलफ उठाना चाहता हो। चित्त जेथा भयशून्य.....वाली भावना के साथ मंडलोई ने इन कविताओं में अपना पक्ष उजागर किया है जैसे कि वही कवि का पक्ष हो। मैंने पहले भी कहा है मंडलोई जीवन संघर्ष के कवि हैं, श्रम के कवि हैं, जीवट के कवि हैं । जीवन की उथल पुथल भरी सरणियों में जो देखा सुना और महसूस किया है उसे कविताओं में लगातार कहने की कोशिश की है। हत्या रे उतर चुके हैं क्षीरसागर में के बाद उन्होंने बेर-अबेर सतपुड़ा नामक एक लंबी कविता लिखी है। यह उस नास्टैकल्जि्क गंध से बुनी कविता है जिससे गुजरते हुए उनका बचपन बीता है। सतपुड़ा की पहाड़ियों के प्रति जैसे यह कवि का कृतज्ञता बोध है। सतपुड़ा भवानीप्रसाद मिश्र और कई कवियों की कविताओं में भी आया है। प्रकृति के ये प्रहरी पहाड़-जंगल न केवल जीवन देते हैं बल्कि जीविका भी। पर कैसी विडंबना है कि सतपुड़ा जैसे पहाड़ उत्तरोत्तर नंगे हो रहे हैं। तभी तो कवि भावुक होकर वनदेवी का हाथ थामने का आह्वान करता है। कवि का निजी जीवन व सुख दुख आशंकाएं भी यहां हैं जैसे नेपाल के भूकंप में फँसे बेटे सुचिंत के लिए लिखी कुछ कविताएं ---जो यह बताती हैं कि कविता में अयं निज: परोवेति जैसा कुछ नहीं होता। स्वांत::सुखाय के बावजूद कवि की इबारत में समूची दुनिया की मानवीय पीड़ा की सिसकियां सुनाई देती हैं।
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लीलाधर मंडलोई के नए काव्य परिप्रेक्ष्य पर एक लंबे अालेख का संक्षेपांश।
वागर्थ के सितंबर 2016 अंक में प्रकाशित।
Source : Om Nishchal